Friday, October 8, 2010

कुछ डायरीनुमा अगड़म-बगड़म

पिछला लंबा समय घनघोर व्यस्तताओं के हवाले रहा. आगे भी रहने वाला है. एक काम दूसरे में, दूसरा तीसरे में, तीसरा पहले में काम अड़ाते रहे. फिर भी सब आगे बढ़ते रहे. कभी-कभी लगता है कि मैं काम नहीं करती, बहुत सारे काम मिलकर मेरा बोझ उठा रहे हैं. किस तरह मैं आधे-अधूरे काम इधर-उधर बिखरा देती हूं. कहीं कोई अधूरी कविता, कहीं कोई किरदार झांकता सा कहानी के भीतर से, कभी कोई संगीत का टुकड़ा जो कानों को छूकर गुजरता और पूरा सुनने की ख्वाहिश को बढ़ा देता. कोई लेख अभी और रिसर्च मांग रहा है, कोई असाइनमेंट टाइम की मोहलत नहीं देता, कुकर की सीटी, दूधवाले की गुहार, ऑफिस से आया कोई फोन, कॉल वेटिंग पर झुंझलाते कुछ दोस्त और इन सबके बीच एक टुकड़ा नींद. बिखरे हुए घर में गुम हो जाने की तमन्ना यह सब तो रोज की बात हुई.

पिछले दिनों जेहनी उथल-पुथल भी काफी रही. न जाने कितने विमर्श एक-दूसरे से टकराते रहे. मैं इस मामले में खुद को हमेशा सीखने की भूमिका में पाती हूं इसलिए सबको गौर से सुनती हूं. सुनने पर, पढऩे पर या मंथन करने पर इन दिनों जो हासिल हो रहा है वो न जाने क्यों सुखद मालूम नहीं होता. बिना विचार वाली विचारधाराओं का जंगल सा उगा हुआ मालूम होता है. आधी-अधूरी जानकारियों के साथ लोग लाठी भांजने में लगे हैं. उनकी खुद की ही बात उनसे जा टकराती है. पार्टियों के नाम अलग अलग हैं, झंडों के रंग अलग-अलग हैं. जाहिर है एजेंडे भी अलग-अलग हैं. लेकिन न जाने क्यों इन दिनों लग रहा है कि कहीं कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसमें सचमुच समाज के अंतिम आदमी के बारे में ईमानदारी से सोचा जा रहा हो. कहीं न कहीं कोई न कोई दबाव सबको घेरे हुए हैं. दबाव के आकार प्रकार पर बात नहीं करनी. बात करनी है विचारधाराओं के अस्तित्व पर.

आज की तारीख में क्या कोई भी विचारधारा आम आदमी के करीब है. विचारधाराओं के प्रणेताओं को उनकी ही विचारधाराएं जकड़े हुए हैं. क्या विचारधाराएं हमें संकुचित करने के लिए गढ़ी जाती हैं. अपने जीवन में पहले विचारक के रूप में मैंने कार्ल माक्र्स को ही जाना, समझा. उन्हें पढ़ते हुए तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ. कितनी बड़ी दुनिया का स्वप्न था उनकी आंखों में, कितनी खुली हुई दुनिया का स्वप्न. एक दिन मैंने सपने में देखा कि कार्ल माक्र्स लौटे हैं इस दुनिया में. बेहद उदास से बैठे हैं. वही उनकी खिचड़ी दाढ़ी, चेहरे पर तेज, बड़ी-बड़ी आंखें और चौड़ा माथा. उनका व्यक्तित्व सम्मोहित करता है. शायद इसलिए भी कि पहले विचारक के रूप में जेहन में पैबस्त हुए कार्ल माक्र्स को कोई भी रिप्लेस नहीं कर सका. अब तक नहीं. लेकिन आज माक्र्सवाद का जो चेहरा न$जर आ रहा है, माक्र्सवादियों का जो चेहरा नजऱ आ रहा है वो तो कुछ और ही है. माक्र्स उदास थे. मैंने सोचा इनका मूड कुछ ठीक हो तो पूछूं कि ये सब क्या हो रहा है? आप कुछ करते क्यों नहीं? लेकिन उनकी उदासी तो बढ़ती ही जा रही थी. उन्होंने कहा, आजकल जो माक्र्सवाद का चेहरा है उसे देखकर मैं खुद माक्र्सवादी होने से इनकार करता हूं.

 मैं खामोश रही. मेरा सपना तो टूट गया था लेकिन माक्र्स का सपना लगातार टूट रहा है. विध्वंस हो रहा है उनकी वैचारिकी का. उन्हीं का क्यों बाकी विचारधाराओं के भी खंडित चेहरे सामने हैं. ऐसे में खंडित समाज के अलावा और क्या न$जर आयेगा भला. बहरहाल, दिमाग में तो न जाने क्या अगड़म-बगड़म चलता ही रहता है. दरवाजे पर कोई है शायद, ओह, फोन पर भी....रुकना पड़ेगा जी अब तो...