Friday, December 30, 2011

स्वाति- अगला भाग

(कॉफी की तलब ज्यादा थी या मन का अनमनापन कहना मुश्किल था. लेकिन कॉफी की तलब का उसके पास इलाज था सो अपने जिस्म को उठाकर किचन तक ले जाना ही उसने मुनासिब समझा. )
आगे...
किचन से झांकने पर उसे शहर न$जर आता था. किचन में काम करते हुए शहर को हांफते हुए देखना उसके लिए बेस्ट टाइम पास था. लेकिन रात के दो बजे शहर हांफ नहीं, ऊंघ रहा था.
तभी उसकी न$जर फ्रिज के ऊपर रखे मेडिसिन बॉक्स पर पड़ी. वो मुस्कुरा उठी. कंट्रासेप्टिव पिल्स के रैपर उसमें से झांक रहे थे. उसे हर गोली में आनंद का चेहरा न$जर आने लगा.
बेड पर पड़ा मोबाइल शायद चीख-चीखकर थक गया था. रात के दो बजे भला कौन फोन करेगा उसने झुंझलाकर देखा. अरे आनंद की कॉल?
वो तो देर रात कभी फोन नहीं करता.
वो वैसे भी कम ही फोन करता है. क्या बात है? स्वाति को चिंता हुई. पलटकर फोन करने की हिम्मत नहीं हुई. आनंद ने साफ मना किया है कि वो उसे फोन और मैसेज न करे क्योंकि फोन कई बार उसकी पत्नी भी उठा लेती है. स्वाति का मन असमंजस में घिर गया. आरती के होते आनंद क्यों उसकी जिंदगी में आया. क्यों आने दिया उसने उसे. कितना युद्ध किया था स्वाति ने खुद से. लेकिन एक रोज आनंद ने उसके सारे युद्ध जीत लिये थे. वैसे भी स्वाति अपने समझदारियों का बोझ उठाये-उठाये थक चुकी थी. आनंद का उसके पास होना उसे जीवन का सबसे बड़ा सुख लगता था, वो सुख भी कितने बंधनों में बंधकर पहुंचा है उस तक. नैतिकताओं के तमाम पन्ने उसके जेहन में फडफ़ड़ा रहे थे. प्रेम के आगे सारे तर्क बौने पड़ जाते हैं. इसी उधेड़बुन में स्वाति को नींद ने धर दबोचा.
सुबह उस रोज जरा देर से आई थी. करीब दस बजे. कामवाली बाई के साथ.
दरवाजे पर किर्रर्रर्रर्र की आवाज के साथ एक कर्कश सुबह ने स्वाति को झिंझोड़कर उठाया.
क्या मैडम, इत्ती देर तक सोती हो? बीना ने आते ही उसे अखबार के साथ ताना टिकाया.
स्वाति ने अखबार को एक तरफ पटका और फिर से चादर तान ली.
लेकिन जल्द उसे उठना ही पड़ा. स्टूडियो से फोन आ चुका था. उसे वहां जल्दी पहुंचना था. उसकी डाक्यूमेंट्री की एडिटिंग का काम चल रहा है. जल्दी से एडिटिंग कंप्लीट नहीं हुई तो इस बार भी उसकी फिल्म जा नहीं पायेगी सिलेक्शन के लिए.
जल्दी-जल्दी नहा धोकर उसने सामान पैक किया. भूख के ख्याल को फ्रिज में पड़े सैंडविच के साथ वापस अंदर भेज दिया.
वैभव को फोन करके स्वाति ने फटाफट स्टूडियो आने को कहा और निकल पड़ी दिन के सीने पर बंदूक रखकर काम की धज्जियां उड़ाने. जितना समय शूटिंग में नहीं लगता, उससे ज्यादा तो एडिटिंग और बाकी कामों में लग जाता है. स्वाति सीढिय़ां उतरते-उतरते सोच रही थी. बीती रात का ख्याल दिमाग के बैकअप में लगातार जमा हुआ था, जिसे सामने आने की मनाही स्वाति ने खुद की थी.
मैम, आना को तेज बुखार है. आज नहीं आ पाऊंगी...ये तृप्ति का स्वर था.
स्वाति खामोश रह गई. आना का नाम आते ही उसके पास चुप लगा जाने के सिवा कोई चारा नहीं रहता. तीन बरस की मासूम आना का चेहरा उसकी आंखों के सामने घूम गया. आना तृप्ति के साथ कई बार स्टूडियो आती है. मां को काम करते हुए देखती है. स्टूडियो के सभी लोगों से उसकी जान-पहचान हो गई है. आना में स्वाति को अपने उदास बचपन की कोई तस्वीर न$जर आती है. पांच बरस की उम्र में स्कूल से अकेले आना. दरवाजे पर बड़ा सा ताला. पड़ोस वाली आंटी से ताला खुलवाकर घर के अंदर जाना. फिर दिन भर आवारगी. इसके-उसके घर झांकना. वो खाना खाये, न खाये कपड़े बदले, न बदले कोई कुछ कहने वाला नहीं था. मां सुबह ही काम पर निकल जाती थी और देर रात लौटती थी. पापा दूसरे शहर में रहते थे. मां कैसरोल में रखे पराठे और सब्जी के रूप में अपनी ड्यूटी पूरी कर जाती थी. मां को ऐसा करने में कितनी पीड़ा होती थी, यह उसके बचपन में कहीं दर्ज नहीं. शायद मां अच्छी अभिनेत्री थी. उसका चेहरा हमेशा सख्त रहता था. उसके गले से लिपट जाने का ख्याल जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ देता था.
तृप्ति तुम आना को पूरा वक्त दिया करो. स्वाति उससे अक्सर कहती.
मैं देती हूं मैम. क्वालिटी टाइम...तृप्ति के चेहरे पर तृप्ति के भाव उभरते. वो आना को भींच लेती अपनी बाहों में...आना अपनी मॉम के गाल पर मीठी सी किस जड़के उसकी बात का समर्थन करती.
स्वाति की आंखें भर आतीं उनके इस लवी-डवी सीन को देखकर. उसकी स्मृतियों में क्यों ऐसा एक भी दृश्य नहीं है. शायद हमारे पैरेंट्स को अपने बच्चों को खुलकर प्यार करना नहीं आता था. अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने को ही वे प्यार समझते रहे.
क्या हुआ मैम...काम शुरू करें?
वैभव की आवाज से स्वाति की स्मृतियों की यात्रा को विराम मिला.
तृप्ति नहीं आ रही है. आना को बुखार है. स्वाति ने बिना किसी भाव के कहा.
अरे, तो काम कैसे होगा? वैभव ने झुंझलाकर कहा.
तुम्हें पूछना चाहिए कि आना को क्या हुआ? कैसी है वो?
स्वाति ने उसे घूरकर देखा.
वैभव झेंप गया. मैम...वो...मेरा ध्यान काम पर था.
अच्छा है काम पर ध्यान देना लेकिन जिंदगी से बढ़कर काम नहीं है ना?
मैम, बच्ची के पापा भी तो उसका ख्याल रख सकते हैं. काम भी तो जरूरी है ना. आफ्टर ऑल प्रोफेशनल वल्र्ड है. फिर क्यों बच्चों की बीमारी मां की जिम्मेदारी ही है. जमाना बराबरी का है ना? वैभव को मौका मिल गया.
याद रखना. तुम्हारी भी शादी होने वाली है. स्वाति ने चुटकी ली.
याद रखूंगा मैम. नहीं कर पाया अगर तो कह दूंगा शांभवी से कि घर बैठो. नौकरी और घर दोनों के साथ नाइंसाफी करने कोई जरूरत नहीं.
ओह...तो यह फैसला भी आप ही करेंगे. आप क्यों नहीं छोड़ेंगे नौकरी, शांभवी क्यों? उसका करियर, करियर नहीं है?
वैभव अब फंस चुका था.
अरे मैम, मैं निभा लूंगा.
तृप्ति भी तो निभा रही है ना?
आप तो उसी का साइड ले रही हैं. काम तो सफर कर रहा है ना? मुझे क्या मैं भी घर जा रहा हूं. वैभव तुनक गया.
नहीं, तृप्ति वाला काम भी हम दोनों ही करेंगे. न हो तो थोड़ी देर को शेखर को बुला लेते हैं. काम पूरा करना है. इंट्री सब्मिट करने की लास्ट डेट ओवर होने वाली है.
शेखर तो बाहर गया है मैम. फिर पिछला काम कहां तक हुआ है, कहां से शुरू करना है यह तो तृप्ति को ही पता है.
क्यों तुम्हें भी तो पता है ना. तुम थे उसके साथ. स्वाति ने डपटा.
काम पूरा करते हैं.
एक बार स्टूडियो में घुसे तो दिन रात का पता ही नहीं चलता जमुहाई लेते हुए वैभव ने कहा. मैम...फस्र्ट एडिटिंग तो कम्पलीट हो गई. फिल्म बढिय़ा आई है. खासकर वो जंगलों वाले सीन तो कमाल हैं. दैट्स व्हाई आई अडोर यू मैम. यू आर जस्ट ब्रिलिएंट...वैभव ने सर झुकाकर नाटकीय अंदाज में स्वाति से कहा. बस...बस...हो गया. स्वाति खिलखिला दी.
काम हो जाने के बाद हंसी में एक हल्कापन सा आ जाता है. वो रूई के फाहों की तरह उड़ती फिरती है. स्वाति की हंसी भी रुई की तरह उड़ती फिर रही थी स्टूडियो में.
मैम, अपना असिस्टेंट बना लीजिए प्लीज. वैभव ने मनुहार की.
सोचेंगे...स्वाति ने बड़ी अदा से बालों को पीछे झटककर कहा.
फिलहाल बहुत भूख लगी है. कुछ खाने का जुगाड़ किया जाए. काम अगर ठीक से हो जाए तो भूख भी खुलकर लगती है.
वैभव दो वेज फ्रेंकी पैक कराकर लौटा तब तक स्वाति टेबल पर सर रखकर झपकी ले चुकी थी.
वैभव, अब मैं निकलूंगी. घर जाकर खाऊंगी. बहुत नींद आ रही है.
अरे मैम, प्लीज खाकर जाइये ना. मैं अकेले कैसे खाऊंगा.
क्यों, अकेले नहीं खाते क्या कभी?
खाता हूं पर अभी मन नहीं है. और आप भी खायेंगी नहीं. जाकर फ्रिज में डंप कर देंगी.
वैभव अगर मैंने अभी खा लिया न तो मैं ड्राइव नहीं कर पाऊंगी. मुझे अब जाना होगा.
तो शंकर काका छोड़ आयेंगे ना? वैभव ने मनुहार की.
कहां उन्हें परेशान करेंगे. सोने दो बेचारे को. बारह बज रहे हैं रात के.
बारह...कहते-कहते स्वाति का चेहरा बुझ गया. कल रात के बाद एक बार भी आनंद का फोन नहीं आया. कोई मैसेज भी नहीं.
चलो, अच्छा खाते हैं. कॉफी बना सकते हो? स्वाति ने आनंद के ख्याल को झटकते हुए कहा.
जरूर. वैभव खुश हो गया.
खाते-खाते स्वाति का मन बेचैन हो उठा.
क्यों कोई फोन नहीं किया आनंद ने? वो हमेशा ऐसा क्यों करता है? खालीपन की एक टीस सी उठी उसके मन में. रात के सीने को चीर देने वाली चीख उसके गले में फंसी थी.
अचानक स्वाति के मुंह का स्वाद कसैला हो उठा.
क्या हुआ मैम, कॉफी अच्छी नहीं बनी क्या?
वैभव ने पूछा तो स्वाति मुस्कुरा दी. अच्छी है. बहुत अच्छी.
आपको देखकर ऐसा नहीं लगता. वैभव ने फ्रैंकी को कुतरते पलकें नीचे किए हुए ही कहा.
स्वाति चुप रही.
जारी... 

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

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