Thursday, March 28, 2013

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते


ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते.

- अकबर इलाहाबादी 

Sunday, March 24, 2013

रवीश कुमार- जिसे चैन से जीना पसंद नहीं

कुछ दोस्तों को हम आवाज़ के सबसे भीतर वाले दरीचों में छुपाकर रख देते हैं। इस भरोसे पे कि सालों की दूरियां भी उनके होने की तासीर को कम नहीं कर पाएंगी। ऐसे ही एक दोस्त हैं रवीश। हाँ, वही एनडीटीवी वाले. सोचती हूँ इस आदमी को चैन से जीना पसंद ही नहीं है। रवीश की रिपोर्ट देखते हुए भी अक्सर ऐसा ही लगता था। सारी दुनिया ऐसे काम करने को उत्सुक और प्रयासरत होती है जिससे आगे बढ़ा जाये, प्रशंशा मिले लेकिन ये जनाब तो जैसे जानबूझकर ऐसे विषय तलाशते है जिसे करने में मेहनत लगे चार गुना और टीआरपी मिले जीरो। इन्हें पंगे लेने में मजा आता है. वो टाई पहनकर स्टूडियो में बैठने की बजाय तपती दोपहर में खबर को तलाशना, लोगों से बातें करना ज्यादा पसंद करते है. फिर भी जब उन्हें स्टूडियो में  बैठना होता है तो वो वहां भी कुछ अलग ही करते नजर आते हैं। रवीश उन मुठ्ठी भर पत्रकारों में से एक हैं जिन्होंने को खुद को खोये बगैर काम करना सीखा है और पत्रकारिता पर भरोसे को बचाया हुआ है.

'हम लोग' को वो नीरज की गलियों से घुमाते हुए दीप्ति नवल फारुख शेख का हाथ पकड़कर सूफी सगीत मदन गोपाल सिंह के जरिये सुफिज्म को समझने की कोशिश करते हैं। कार्यक्रम देखते हुए अक्सर उनके भीतर का पागलपन यानि कुछ बेहतर करने की जिद सी झलकती है। सचमुच इस दुनिया को पागलों ने ही बचाया हुआ है। ऐसे दोस्त होते हैं तो जिन्दगी की कड़वाहटें भी मीठी सी लगने लगती है। ये यकीन बचा रहता है कि कुछ लोग अपने अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं बावजूद इसके कि ये आसान नहीं है. ये जानते हुए कि जिस राह को वो चलने के लिए चुनते हैं उस पर चलने में हजार दिक्कतें हैं फिर भी वो चुनते हैं वही राह.

मैं कहती हूँ जान ही ले लो आप कितना सुन्दर प्रोग्राम था 'मौला मेरे मौला' भी 'लिसन अमाया'  भी,  'नीरज' भी,  वो फीकी सी आवाज में कहते हैं और उनकी रेटिंग के बारे में पता है तुम्हें? मैं कहती हूँ मैं जानती हूँ नयी लकीरें खींचने की जिद भी और दिक्कत भी।

शुक्रिया रवीश। रहे सलामत यूँ ही पागलपन! 


Tuesday, March 19, 2013

युद्ध


जीवन जैसा वो है उसे वैसा स्वीकार करने से बड़ी आपदा कोई नहीं. हालांकि हर समझदार व्यक्ति यही सलाह देता है कि जीवन के सत्य को स्वीकार करो. शांति तभी संभव है. तो भाई, शांति नहीं चाहिए. आप समझदार, ज्ञानी लोग अपनी शांति अपने पास ही रख लो. हम तो मूरख, अज्ञानी ही भले. क्योंकि जीवन जैसा वो है वैसा मुझे स्वीकार नहीं. संभवतः यही वजह है कि युद्ध मुझे पसंद हैं. प्रतिरोध पसंद हैं.

युद्ध वो नहीं जो सीमा पर लड़े जाते हैं. युद्ध वो जो अपने भीतर लड़े जाते हैं. जिसमें किसी का बेटा, किसी का भाई किसी का पिता या किसी का प्रेमी शहीद नही होते बल्कि जिसमें हर पल हम खुद घायल होते हैं और अक्सर शहीद होने से खुद को बचा लेते हैं.

शांति , सुख, नींद, चैन ये सब बेहद उबाऊ शब्द हैं. इनमें जीवन नहीं है. इनमें जीवन युद्ध का विराम है बस. अल्पविराम. जिसके बाद उठकर वापस मोर्चे पर डटना है. जाने क्यों लड़ती रहती हूं हर पल. किससे लड़ती रहती हूं आखिर. खुद से ही शायद . अपनी ही शांति  को खुरचते हुए राहत पाती हूं. भीतर की तड़प, बेचैनी, उनसे बाहर आने की जिद, जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार न करने की जिद जीवन में होने के संकेत हैं. जितना भीषण युद्ध उतना सघन जीवन.


Monday, March 4, 2013

विनम्रता भी एक किस्म का अहंकार है...


'आप में अहंकार बहुत है,' उसने अपनी मजबूत आवाज में कहा था। मेरी आंखें भर आई थीं। मैंने अपना चेहरा उठाया और उसके चेहरे को पढ़ने की कोशश की कि वो जो कह रहा है उसमें सच कितना है। हालांकि उसकी आवाज में सच घुला हुआ था।

उसके जाने के बाद उसके कहे का हाथ थामे घंटों खड़ी रही। 'आप में अहंकार बहुत है।' इसके पहले तो लोग मुझे विनम्र, मदुभाषी, सहज, संकोची कहते थे। अहंकार...ऐसा तो किसी ने कभी नहीं कहा। बहुत सोचा फिर भी ध्यान नहीं आया कि किसी ने ऐसा कहा हो। खुद आत्ममंथन किया कि ऐसी कौन सी बात है, जिसके चलते उसने मुझे अहंकारी कहा होगा। मैं तो सबकी सुनती हूं। अपनी गलती मान लेती हूं। खुद को कमतर ही समझती हूं। कभी सोचा ही नहीं कि मुझे कुछ आता भी है। हर किसी से सीखने को उत्सुक। इन सबमें अहंकार कहां है....और अचानक हंसी आ गई। इस बात को कबसे सर पे उठाये घूम रही हूं...अपनी ही पड़ताल में उलझी हूं। यानी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही हूं कि मुझमें अहंकार है। यह स्वीकार न कर पाना है क्या? अहंकार ही तो है। अपनी सहजता, विनम्रता वगैरह का गुमान।

मेरे उस दोस्त ने ठीक ही कहा था कि विनम्रता भी एक किस्म का अहंकार है। समाज जिन्हें सद्गुण कहता है, उन्हें अपने ही हिसाब से परिभाशित करता है। ऐसा होना अच्छा है वैसा होना बुरा है। सबका ख्याल रखना, ठीक से बात करना, बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार करना, वर्ग, जाति, धर्म भेद की दीवारों को लांघकर एक इंसान होने की ओर अग्रसर होना। इन बातों को हम गंभीरता से समझते हैं और धारण करने की ओर अग्रसर भी होते हैं। धीरे-धीरे हमारे भीतर चेतन या अवचेतन में हमारे खुद के बेहतर होने की बात जमा होने लगती है। अपने इस बेहतर होने के गुमान को हम सुबह षाम पानी देते हैं, पालते पोसते हैं। मैं तो सबका भला करता हूं। किसी का कभी अहित नहीं किया। अपने हिस्से की रोटी भी दूसरों को खिला देता हूं. मुझमें कैसा अहंकार...यह जो 'मैं' है...असल जड़ यही है कम्बख्त! हम कितने ही विनयी, मधुर, दयालु हो लें 'मैं' नहीं छूटता. यही अहंकार है।

(उसने एक बात और कही थी कि सद्गुण धारकों में जितना अहंकार होता है उतना अवगुण धारकों में नहीं होता।  इस बारे में कभी और )

अपने उस दोस्त की शु क्रगुजार हूं कि उसने मुझे मेरे अहंकार से परिचित कराया। परिचित होने के बाद इस अहंकार का मैं क्या करूंगी, क्या नहीं यह तो नहीं जानती लेकिन खुद के एक सच से वाकिफ तो हुई। अब मैं खुले मन से स्वीकार करती हूं कि हां, है मुझमें थोड़ा सा अहंकार क्योंकि मुझमें मेरा 'मैं' बाकी है अभी।

'मैं' को त्यागना आसान नहीं लेकिन 'मैं' को पाना भी आसान नहीं। अपने होने को महसूस करना, उसे इस दुनिया से बचाकर सहेज कर रखना। अभी मैं किस तरह त्यागूं अपना 'मैं' कि अभी तो इसे दबाये, छुपाये किसी तरह बचाने की ही जद्दोजेहद में उलझी हूं। एक जिद सी है कि खुद को मरने नहीं दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए....और ये मेरा अहंकार है तो है...
जरूर इस अहंकार से मुक्त होना चाहूंगी एक दिन लेकिन उसके पहले अपने होने को जी तो लूं जरा।