Saturday, June 28, 2014

कौन पढ़ पाता है खुशबू यहाँ...

(Pic- Anna Aden, courtesy- Google)


अँधेरा सिर्फ तब नहीं घिरता जब दिन अपना सामान समेटता है, अँधेरा सूरज से आँख मिलाते हुए भी उग सकता है. ठीक ऐसा ही रौशनी के साथ भी है. रौशनी, मैं बार बार रौशनी दोहराती हूँ. चारों तरफ घुप्प अँधेरा है और मैं किसी मन्त्र की तरह रौशनी उच्चारती हूँ. जैसे-जैसे अँधेरा बढ़ता है मैं अपनी दाहिनी हाथ की कलाई से बायीं हाथ की कलाई को थाम लेती हूँ. साँसों की बढ़ती हुई रफ़्तार पर धीरे से कान रख देती हूँ. आँखों को मूंदते हुए रौशनी....रौशनी....रौशनी....पुकारती हूँ. अँधेरा ठहाके मारकर हँसता है. मैं कान मूँद लेती हूँ. अपनी आवाज से अपने कानों के कुँए को भर लेना चाहती हूँ.

कोई झिंझोड़ के कहता है इतनी रौशनी तो है, इतना ढेर उजाला, तुम्हें क्या चाहिए? पर मुझे तो उजाला नहीं दीखता अँधेरा ही दीखता है, गहन अँधेरा, एकदम स्याह मानो लील लेगा सब कुछ. मैं खामोश हो जाती हूँ.

मेरी हथेलियों से फिसलकर मेरे शब्द अपने अर्थ समेत कहीं गुम गए हैं. उनके भाव चिपके हुए हैं हथेलियों में, अपनी तमाम खुशबू के साथ. कौन पढ़ पाता है खुशबू यहाँ। ये शब्दों की दुनिया है. मैं शब्दों को टटोलती हूँ, मिलते नही. जिस भाषा में मैं कुछ कहती हूँ वो शब्द विहीन है. लोग मुझे अजीब ढंग से देखते हैं. मैं उन्हें. मैं इस दुनिया से भाषा में भी बिछड़ गयी. मेरी हथेलियों पर चिपकी गुम गए शब्दों की खुशबू मुझे बेचारगी से देखती है.

रात मुझे घूरकर देखती है. मैं सहम जाती हूँ. खुद को समेटकर एक कोने में रख देती हूँ. काली चाय पीने की इच्छा को भी समेट देती हूँ. तभी एक चिड़िया मेरी मेज पर आकर सर टिकाती है. मैं उसे अपने पास से उड़ा देना चाहती हूँ कि कहीं ये अँधेरे का नश्तर उसे चुभ न जाये. वो मुझे खिड़की के बाहर देखने को कहती है.…उसके चहचहाने में रौशनी का सन्देश है. उसके सन्देश से झरती हैं कुछ बूँदें. पलकों पर नमी महसूस होती है.एक ये कमबख्त मन का मानसून है कि थमता नहीं और एक ये मौसम वाला मानसून है आने का नाम नहीं ले रहा. सच है जिसका इंतज़ार करो बस वही नहीं आता बाकी सब मुंह उठाये चले आते हैं.

उस नन्ही चिड़िया का हाथ थाम लेती हूँ. मेरे खो गए शब्दों में से कुछ मुझसे टकराते हैं. जो आवाज कानों में टपकती है वो ये है 'सुनो, तुम चली तो न जाओगी.... रहोगी न साथ हमेशा?' चिड़िया चुपचाप सर हिला देती है.... खिड़की के बाहर गुम गए शब्दों का ढेर है. अब मेरी उनमे कोई दिलचस्पी नही.

हल्का महसूस हो रहा है. कहने और सुनने से मुक्ति है....


2 comments:

वाणी गीत said...

खुशबू पढ़ी भी नहीं जा सकती , शब्दों पर टिके क्या जाने !
अच्छा लिखा !

dr.mahendrag said...

बेशक , खुशबू छूई न जा सकती हो,नज़रसे देखि न जा सकती हो पर उसका अहसास सब कुछ बता देता है सुन्दर अभिव्यक्ति