Saturday, September 20, 2014

कश्मीर- महफ़ूज़, शब्द कितना महफूज़ बचा है अब?



पुरानी किसी एल्बम से झांकते हैं
दुआ में उठे कुछ हाथ,
इस्तेकबाल में आगे बढे कदम
सीने में उड़ेल दिया गया प्यार
और दिल फरेब मेहमाननवाजी

पुरानी किसी एल्बम से झांकती हैं
पोशीदा मुस्कुराहटें
शरारतें

किसी नाज़नीन की तरह
बाद तमाम नखरों के अपने प्रेमी
के सीने में दुबक जाने की मानिंद
हवा में देर तक गोल चक्कर लगाने के बाद
धरती के सीने में चुपचाप टिकते
पत्ते चिनारों के

पुरानी किसी एल्बम से
एक ठंडी हवा का झोंका
दाखिल होता है कमरे में
ऊब, उमस और निराशाओं के कुहासे
ताज़ी खुशनुमा हवा के झोंको में
तब्दील होने लगते हैं

कहवे की खुशबू
उड़ा ले जाती है चिनारों के साये में

डल झील के एकदम बीचोबीच
देखा गया वो ढलता हुआ सूरज
आँखें मलता हुआ
झांकता होगा न जाने कितनी
पुरानी एल्बमों से

अनंतनाग, गुलमर्ग, पहलगाम
मुस्कुराते हैं पुरानी एल्बम में
सेब के बागान और उनकी मिठास से लबरेज
वहां के लोगों की ज़बान
केसर के खेत
अखरोट के बाग़

यहाँ वहां चौकन्ने सिपाहियों की आँखें
अचानक मदद को आगे बढ़ते हाथ
जो यक ब यक तो डराते हैं
फिर दोस्त बनकर हाथ हिलाते हैं
गुम गए रास्ते ढूंढकर पांव में पहनाते हैं

कश्मीर यूनिवर्सिटी की खूबसूरती झांकती है
पुरानी एल्बम से
समूचा श्री नगर मुस्कुराता है
उतरती शामों को कन्धों पर समेटते हुए लाल चौक से
मुख्य बाजार तक टहलते हुए जाना
और लौटते समय याद में रह जाना
लोगों का दिल जीत लेने का हुनर

पुरानी डायरी में दर्ज है कहीं कि
कश्मीर सिर्फ अपनी कुदरती खूबसूरती के कारण
नहीं बल्कि
यहाँ के लोगों की नेक नियति
मोहब्बत और दिलों में भरी मिठास के कारण
भी ख़ास है…

सियासतदानों के खेल के चलते
सरहद पर खिंची लकीरें
दिलों पे भी उभरने लगीं
नहीं ये पुरानी एल्बम में कहीं दर्ज नहीं

हाँ, दर्ज हैं ढेर सारे सैनिक
रात दिन धरती के सबसे सुन्दर टुकड़े की हिफाज़त में तैनात

बर्फ से ढंकी वादियों में जब लाल छींटें उड़ते हैं
तब समूचे देश की नींद की चादर
उड़ गयी हो ऐसा दर्ज नहीं है
न डायरी में न पुरानी एल्बम में

कुछ बेशर्म बयान दर्ज हैं
अख़बारों में, कुछ बेहूदा तर्क
मगरूर चैनलों में

नहीं दर्ज है मासूमों का खौफ,
न, सेना की मुश्किलें
और कहीं नहीं दर्ज है दोनों के
बीच खाई तैयार करने वालों के स्याह इरादे

आज फिर संकट में है धरती का स्वर्ग
फ़ोन पर आती है एक घबराई हुई आवाज
सब बह गया, सब बह गया
अल्लाह का शुक्र है
मेरा परिवार महफूज है
अल्लाह का शुक्र है.…

उफ्फ्फ्फ़, महफ़ूज़, शब्द कितना महफूज़ बचा है अब?


2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-09-2014) को "जिसकी तारीफ की वो खुदा हो गया" (चर्चा मंच 1744) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

राजीव उपाध्याय said...

आपने जिस सच और भाव को प्रस्तुत किया है उसे देखना कौन चाहता है। कश्मीर की कराह कोई सुनने वाला नहीं है आज।