Friday, October 10, 2014

जिंदगी खुलकर खिलती है, मुस्कुराती है...


बड़े सादा हैं तेरे लफज कि इन लफजों में
जिंदगी खुलकर खिलती है, मुस्कुराती है....

बड़े से कोरे कागज पर ढेर सारे अक्षरों का ढेर जमा है। बड़ा सा ढेर। एक-एक कर अक्षरों को गिराने का खेल सुंदर लगता है। काफी अरसे से ऐसा मालूम होता है कि अक्षर जैसे ही शब्द बनेंगे, किसी न किसी अर्थ का लिबास ओढ़ेंगे और बहुत भारी हो जायेंगे। इतने भारी कि उनका बोझ जीवन के कंधों पर उठाना मुश्किल होगा। कागज की सादगी दिल लुभाती है। जीवन के विस्तार सा फैला कागज, एकदम साफ, सुथरा, सादा कागज...कोरे कागज की सादगी पे जां निसार करने का जी चाहता है। सारे अक्षर एक-एक कर लुढ़क चुके हैं बस कि तीन अक्षर दो मात्राओं के साथ मुस्कुरा रहे हैं...सा द गी...कोरे कागज की सादगी....उन अक्षरों में समा गई और वो अक्षर शब्द बनकर मुस्कुराते हैं। जीवन के कोरे कैनवास पर सादगी के रंग बिखरते हैं...

सादगी कितना आकर्षण है इसमें। कितनी पाकी़ज़गी। सादगी फूलों की, नदियों की, पहाड़ों की, फिजाओं की, जंगलों की, खेतों की, खलिहानों की, मेहनत की, संघर्ष की...सादगी बच्चों की मासूम मुस्कुराहटों की, शरारतों की, सादगी दुआ में उठे हाथों और सजदे में झुकी पलकों की... उफफफ...किस कदर जादू है इन तीन लफजों में...कि जिंदगी इनके हवाले से ही जिंदगी मालूम होती है बाकी तो सब गढ़ा हुआ कोई खेल सा लगता है।

एक रोज यूं ही नदी किनारे टहलते हुए खुद से पूछा था ये सवाल कि क्या है जो हमारे हर सवाल का जवाब कुदरत के पास मौजूद होता है? हर जख़्म का मरहम? क्यों हर रोज उगने वाला सूरज, चांद, हवायें, चिडि़यों की चहचहाआहट हमें बोर नहीं करती। जवाब था सादगी, स्वाभाविकता। हम जितने स्वाभाविक हैं उतने ही सादा हैं। और सादगी कभी बोर नहीं करती। काट-छांटकर तैयार किये गये पार्क हों या मेकअप की धज में रचे व्यक्तित्व...सब जगह एक ऊब है, लेकिन तेज धूप में हल चलाते किसान हों, खेतों में धान रोपती स्त्रियां, झुर्रियों वाली बूढ़ी दादी की मुस्कुराहट हो या किल्लोल करते बच्चे...सब हमें लुभाते हैं... क्योंकि यहां सौंदर्य अपनी सादगी के साथ आता है। ठहरता है।

सब जानते हुए भी जाने कब कैसे समय की गति के साथ तालमेल करते-करते हम सादगी से दूर निकल आये। हम रच बैठे एक झूठी बेमानी दुनिया। मुखौटों से सजी हुई। जहां मुस्कुराहटें भी ड्यूटी पर तैनात एयरहोस्टेस जैसी मालूम होती हैं और विनम्रता भी मैनजेमेंट के स्कूलों के सेलेबस का कोई पाठ लगती है। शब्द अर्थ से भरे लेकिन भाव से खाली और इन सबका हश्र यह है बावजूद तमाम कम्युनिकेशन मीडियम के, हजार फोन, फेसबुक, व्हाटसएप्प, वेबसाइट्स, हजारों दोस्तों, मोटे पैकेजेस, लंबी गाडि़यों के बावजूद लोग लगातार अकेलेपन से जूझ रहे हैं।

हो सकता है कि किसी को यह नाॅस्टैल्जिक फीवर यानी अतीत प्रेम का बुखार मालूम हो लेकिन सच में अक्सर अपनी बेचैनियों में बचपन की स्मृतियों को खंगालती हूं तो कुएं की जगत पर चाचियों, मामियों की खिलखिलाहटों में घूंघट का सौंदर्य जाग उठता था। सर्द रातों में अलाव के गिर्द जमा मजमा बिना किसी साइकोलाॅजिस्ट की काउंसलिंग के मन पर जमी तमाम काली पर्तों को उखाड़ फेंकता था। वो जीवन की सादगी भरे लम्हे थे, उनमें ताकत थी, हमें संभाल पाने की। लेकिन जाने किस सफर के मुसाफिर निकले हम कि सादगी भरी पगडंडियों के सफर को छोड़ फलाई ओवर्स पर भागने लगे।

ये सिर्फ बाहरी भागमभाग का मुआमला नहीं, ये विकास से किसी बैर की बात भी नहीं लेकिन इस सब के बीच खुद से छूट जाने की बात हो। जो सादगी हमारा गहना थी, जिसके सौंदर्य से हम खिल जाते थे, जिस सादगी के साये में हमारा व्यक्तित्व लगातार निखरता था, जिसकी आंच में हम सिंककर हम मजबूत होते थे अनजाने ही वो सादगी हमसे दूर होने लगी।

आज न जाने कितने उपाय ढूंढते फिरते हैं मन की शांति के...कितने ठीहे, कितने योग, कितने पैकेज लेकिन ये कस्तूरी को वन में ढूंढने जैसा ही है।

हमने सबसे सुंदर पहाड़ काटे वहां अपना सीमेंट का घर बनाने को, सबसे सुंदर जंगल काटे घर के अंदर नकली जंगल उगाने को। जीवन में एक नकलीपन भर लिया...लेकिन इन सबसे दूर...धूप अब भी अपने सौंदर्य पर इठलाती है, गुलाबी हवाओं की रूमानियत अब भी इश्क की रंगत बढ़ाती है...सादगी अब भी मिलती है किसी अल्हड़ मुस्कुराहट में।
कुम्हार की माटी सी सादगी...मौसम की करवट सी सादगी...मोहब्बत के आंसू सी सादगी...नन्हे के हाथों की आड़ी-टेढ़ी लकीरों सी सादगी...जीवन इनसे दूर कहीं नहीं है...मत जाओ काबा, मत जाओ गिरजा...इबादत बस इतनी कि अपने भीतर की सादगी पे आंच न आने देना...
सादा होना, सरल होना...। इतना कठिन भी नहीं सरल होना, इतना जटिल भी नहीं सादा होना, बस कि उस जरूरत को महससूना जरूरी है। मौसम अंगड़ाइयां ले रहा है...सुबहें पलकों में ढेर सारे ख्वाब सजा के जाती हैं, नन्ही ओस की बूंदें शाम को आॅफिस से घर जाते वक्त कांधों पे सवार होकर गुनगुनाती हैं...कितने बरसों से वो बूढ़ा उसी मोड़ पर बांसुरी बजाता मिलता है...दिन भर की अकराहट को उठाकर फेंकने को रास्ते में बिखरी जिंदगी की तमाम सादगियां इस कदर काफी हैं कि और कोई चाहत भी नहीं।

हां, उसी मोड़ पर फिर ठिठकते हैं कदम जहां महबूब से हाथ छूटा था...उस लम्हे की सादगी में इश्क की पाक़ीज़गी अब तक सांस लेती है... किसी कैफेटेरिया में नहीं, किसी सिनेमा हाॅल में नहीं, किसी आलीशान पार्क में भी नहीं यूं ही भीड़ भरी सड़क पर एक रोज दो दिलों की आहटें टकरा गई थीं...वो लम्हे अब भी उन्हीं सड़कों पर मुस्कुराते हुए दौड़ते फिरते हैं...ये उन लम्हों की सादगी की तासीर ही है कि सौंदर्य का फलसफा कभी ब्यूटी पार्लर के बाहर टिका ही नहीं...वो तो उस अनमोल सी सांवली सूरत पे अटका हुआ है, जिसने बिना कोई जतन किये अपने भीतर की सादगी को महफूज रखा है...न जाने क्या है इस सादगी में....कैसा आकर्षण....कैसा खिंचाव...कि जीवन के कोरे कागज से जब सारे अक्षर झाड़ कर गिरा दिये तब भी ये तीन अक्षर वहां रह ही गये...मुस्कुरारते...गुनगुनाते...जिंदगी का कोरा कागज....खिलखिला दिया...जिंदगी की इस सादादिली पे कौन न फिदा हो जाये भला...

(प्रकाशित)


5 comments:

Onkar said...

सुंदर प्रस्तुति

Unknown said...

Baahut sunder prastuti ... Badhaayi !!

palash said...

sundar rachna

कुमकुम त्रिपाठी said...

बड़ा सुकून देती है ये सादगी .........
वाह !अच्छी रचना .....

कुमकुम त्रिपाठी said...

जो सुकून और खुबसूरती सादगी में है वो और कहाँ ....
बढ़िया लेख