Sunday, August 7, 2016

आज के समाज मेँ प्रतिभा के हीर-रांझा


सुभाष राय
सम्पादक, जन्संदेश  टाइम्स.

प्रतिभा कटियार की कहानी 'मिस्टर एन्ड मिसेस हीर रांझा' समाज मेँ कहीँ बहुत गहरे घट रहे या घट सकने वाले एक सँरचनात्मक बदलाव की कहानी है । यह अपने कथ्य मेँ हीर -रांझा की पारम्परिक कथा को आज के परिप्रेक्ष्य मेँ एक क्रांतिकारी प्रस्थापन से लैस करती है। प्रतिभा कहती हैँ कि रांझा को पराये घर मेँ ब्याह दी गयी हीर के लिये रोते हुए जंगलोँ मेँ भटकने का अनुभव तो था लेकिन बीवी बनकर घर मेँ तकरीर करने वाली हीर को कैसे सहेजना है, इसका कुछ पता नहीँ था। ऐसे मेँ जिस तरह कहानी आगे बढती है, जिस तरह रांझा एक सेल्फ असर्टिँग पुरुष की तरह हीर को समझने की जगह उस पर खुद को थोपना शुरु करता है, किसी को भी लग सकता है कि ये हीर-रांझा जल्दी ही टूट जायेँगे, बिखर जायेँगे लेकिन ऐसा होता नहीँ है।

 रांंझा को यह देखकर आश्चर्य होता है कि हीर उसकी परम्परावादी जकडन मेँ उलझी माँ को भी एक दिन बदल कर रख देती है, एक अर्थ मेँ उसे जीना सिखा देती है। स्त्री अपने लिये जो स्पेस चाहती है, उसकी चिंता पुरुष कहाँ करता है, उसका मन क्या कहता है, इसे कब देखता है। सच तो यह है कि वह प्यार मेँ भी उसे मुक्त नहीँ करता बल्कि जकडे रहता है। हीर यह पसन्द नहीँ करती पर रांझा को उसके तर्क समझ मेँ नहीँ आते। पाठक की यह आशंका कि यहाँ सब -कुछ चकनाचूर हो जाने वाला है, सही साबित नहीँ होती और अचानक एक दिन रांझा को हीर की बातेँ सही लगने लगती हैँ, उसकी समझ बदलने लगती है। हीर तो शादी के बाद भी हीर ही रही पर रांझा का पुरुषवादी सोच अचानक एक छोटी सी घटना से जिस चमत्कारी ढंग से बदलता है, वहाँ कहानी अपनी सहजता मेँ एक झटका खाती दिखायी पडती है। 

लगता है प्रतिभा उसके कान पकडकर घुमा रहीँ हैँ लेकिन इसका कहानी के समूचे प्रभाव पर ज्यादा असर नहीँ पडता है। हीर-रांझा को जंगलोँ से शहर मेँ लाकर भी प्रतिभा उन्हेँ हीर-रांझा बनाये रखती हैँ, यही इस कहानी की विशेषता है।...मैँ हीर हूँ, शादी के बाद भी हीर ही बनी रहना चाहती हूँ,... तुम मुझे पत्नी बनाने पर तुले रहते हो, पत्नी तलाक दे सकती है, पति तलाक ले सकता है, धोखा दे सकते हैँ एक दूसरे को लेकिन हीर-रांझा नहीँ।

 ये प्रतिभा के हीर-रांझा हैँ, ढूँढने पर शायद कठिनाई से मिलेँ लेकिन ऐसे जीवन की सार्थकता से इंकार नहीँ किया जा सकता, जहाँ दोनोँ के लिये एक ही समतल हो मगर स्त्री न श्रद्धा होकर रह जाय, न विश्वास से परे चली जाय। दोनोँ एक दूसरे को बान्धेँ नहीँ मुक्त करेँ।


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