Sunday, January 1, 2017

अकेलेपन में खिलना और महकना...


नदी की बीच धार में उसने धीरे-धीरे अपनी मुठ्ठी खोल दी थी...मेहँदी के साथ-साथ उसने अपने हाथों की सारी लकीरें भी बहा दी थीं. मेहँदी का रंग नदी में घुलने लगा, नदी का पानी ललछौवां हो गया, हिनाई खुशबू नदी की धार के साथ बहने लगी. उसने अपनी पलकों को मूंदा और चेहरा आसमान की ओर किया. उसके भीतर की नदी बंद पलकों से छलकने लगी. उसने अपनी दोनों बाहें पसारीं...आसमान उसकी बाहों में सिमटने लगा...नदी की धार के ठीक बीच में उसने आसमान को गले लगाया...होंठ बुदबुदाये...सुख...

छप्प की आवाज़ आई...वो आँखें मूंदे-मूंदे ही मुस्कुराई...जानती थी सूरज ने नदी में छलांग लगाई है. वो दिन भर ड्यूटी करके थक गया जो गया था. पेड़ों पर बैठे परिंदे पंख फड़फड़ाकर उड़ गए...लड़की अपने अकेलेपन में डूबने उतराने लगी.

अकेलापन...एकांत नहीं अकेलापन. लड़की ने अकेलापन कमाया था. जिन्दगी के साथ जूझते हुए, बिना हारे, लड़ते हुए...कभी-कभी हारकर भी. अकेलापन उसे मिला नहीं था, उसकी झोली में आ नहीं गिरा था, उसने इसे खुद कमाया था...और आज वो इस अकेलपन के सुख में आकंठ डूबी है, तृप्त है.

कैसी अजीब सी बात है न, कि सारे ज़माने में लोग अकेलेपन से जूझ रहे हैं, रो रहे हैं, तड़प रहे हैं, अकेलेपन से लड़ने के तमाम उपाय कर रहे हैं ऐसे में कोई है जो इसी अकेलपन के सुख को जी रहा है, उसकी पूरी सम्पूर्णता के साथ. क्या यह संभव है, ये कैसे संभव है भला? यही प्रश्न मुश्किल है. हालाँकि इतना मुश्किल भी नहीं.

है क्या ये अकेलापन-
अकेलापन है क्या आखिर? कब और कैसे मालूम होता है कि अब अकेलापन आ चुका है जीवन में. आया है या हमने खुद उसे बुलाया है. जो भी है, जैसे भी आया है लेकिन हम शायद उसे ठीक-ठीक समझ नहीं पाए. उसके आने पर किस तरह उसके साथ मेलजोल बढ़ाना है, कितना बढ़ाना है, कैसे उसे अपनी जिन्दगी में बिसूरने की नहीं खुश होने की वजह बनाना है, कैसे अब तक के छूटे-बिखरे तमाम लम्हों को एक लड़ी में पिरोना है और उन्हें जी लेना है यह सब जानना बाकी ही है अभी. इस न जानने का नतीजा यह हुआ कि नकारत्मक अवधारणाएँ इसके बारे में प्रचलित हो गयीं और ज्यादातर लोग इसके आने से घबरा जाने लगे, दुःख में डूब जाने लगे, भागने की कोशिश में डूबने लगे, निराशा में जाने लगे.

और शायद इसलिए हम जान ही नहीं सके कि अकेलापन एक नेमत है, एक असाधारण सुख. इसी अकेलेपन की तलाश में ही तो पीर फकीर, साधू-सन्यासी जंगलों की खाक़ छानते फिरे...और उन्हें लम्बी साधना के बाद जो मिला वो ज्ञान क्या था...उनका अपने आप को समझ पाना, दुनिया के नीति नियमों से दूर अपने केंद्र पर अपना अख्तियार कर पाना. बुद्ध को उस वृक्ष के नीचे सुजाता के हाथ से खीर खाकर और कौन सा ज्ञान प्राप्त हुआ होगा भला...

जिन्दगी बेहद साधारण चीज़ों में होती है, मामूली लम्हों में लेकिन हम उन मामूली लम्हों को इग्नोर करके जाने किस खोज में भटकते फिरते हैं. इस भटकाव से कैसे बचना है, यह सीखना ही जिन्दगी की ओर कदम बढ़ाना है.

अकेलापन भी उन्हीं में से एक है. अकेलापन सुख है...इसका हाथ थामकर जिन्दगी ज्यादा समझ आने लगती है, मौसम ज्यादा करीब आ जाते हैं, हम खुद को ज्यादा प्यार करने लगते हैं...सुबह की चाय का स्वाद अपनी ही सोहबत में और बढ़ जाता है...

यह अकेलापन ही है, जो हमें हमसे मिलाता है, जो हमारे वजूद को टटोलकर हमें बताता है कि ये तुम हो, अब खुद को और निखारो और जियो...ये अकेलापन ही है जिसने दुनिया भर की रचनात्मकता को जन्म दिया...प्रेम के असीम लम्हों में जब देह से इच्छा का साथ छूट जाता है तब अपने व्यक्तित्व की पूर्णता का एहसास होता है...असीम अकेलेपन के उन लम्हों में वो जो पलकों से छलकता है वो सुख, अपने स्व को पूर्णता में महसूस करने का.

कई बार यूँ भी होते पाया है कि याद में कोई जितना करीब होता है, उसकी उपस्थिति उस करीबी को खरोंच देती है...वापस अपने एकांत में जाकर अपने अकेलेपन में गढ़ना उसकी खुशबू और जीना इश्क...

वो जो तन्हा है, वो तन्हा क्यों है-
सुना है कि आजकल लोगों में अकेलापन बढ़ता जा रहा है. पर कैसे? आजकल तो हर वक़्त हर कोई किसी न किसी के साथ ही होता है. सोशल मीडिया के सहारे या किसी और माध्यम से, हमारे चारों ओर लोगों का हुजूम है. घर से लेकर बाहर लोग ही लोग हैं...बातें ही बातें...हंसी मजाक, घूमना फिरना, शादी ब्याह के जलसे, पार्टियाँ, थिरकते कदम, खिलखिलाते मुस्कुराते चेहरे और एक रोज़ सब ठप्प...अचानक. पता चलता है कि कोई तन्हाई थी जो भीतर-भीतर ही पल रही थी और एक रोज़ वो बीमारी बन गयी.

वो जो भीतर पल रहा था, वो क्या था? क्या हमने कभी उससे बात की थी? वो क्यों था? अगर वो था तो उससे उदासी ही क्यों रिस रही थी? अकेलापन मन की स्थिति है...यह तो समझना ही होगा लेकिन इसके लिए समझना होगा मन भी. मन क्या होता है, कहाँ रहता है आखिर?

आओ मिलकर इस अकेलेपन की कदर करना सीखते हैं, इससे प्यार करना सीखते हैं.

उदासी से क्या रिश्ता है अकेलेपन का-
जाने कब कैसे अकेलेपन को निराशा और उदासी से जोड़ दिया गया होगा. या शायद हो भी कोई रिश्ता. कि अकेलेपन के चलते लोगों को डॉक्टरों के चक्कर क्यों काटने पड़ते भला. कल तक जो साथ था, अब वो दूर-दूर तक नहीं है, सबके साथ कोई न कोई है हमारे ही साथ कोई नहीं है, या वो नहीं जिसका तस्सवुर किया रात दिन...और अब ये रात दिन का अकेलापन...काटता है...ऐसे न जाने कितने लोग आसपास हैं, कितने किस्से. हम सब कभी न कभी अकेलेपन से जूझे ज़रूर हैं, उससे भागते फिरे हैं...न जाने कितने उपाय करते फिरे..लेकिन हाथ क्या आया?

किसी का साथ होना भर अगर अकेलापन दूर करने की वजह होता तो आज क्यों बढ़ रहा होता इतना अकेलापन? हर किसी के पास कोई न कोई तो है ही...किसी न किसी रूप में. अगर यह अकेलापन व्यक्ति से जनित है तो क्यों उसी व्यक्ति के होते, हुए उसी के साथ रहते हुए जिसके साथ की तमन्ना हमेशा की थी अकेलापन आ जाता है जीवन में. अगर यह जीवन में आये दुखों से, असफलताओं से जनित है तो क्यों सुख के, ख़ुशी के पलों में भी अचानक एक हूक सी उठती है कलेजे में और दुनिया के तमाम शोर से उठकर दूर कहीं भाग जाने को जी चाहता है.

कनेर की डाल पर मुस्कुराते पीले फूल-
जीवन कनेर की डाल सा मालूम होता है. जिस पर लहलहाते पीले फूल लुभाते हैं, लेकिन उन्हें तोड़ने को हाथ नहीं बढ़ते कि बचपन में किसी ने बता दिया था ये फूल भगवान को नहीं चढ़ाये जाते. इतने प्यारे फूल....भगवान को क्यों नहीं चढाए जाते, सफ़ेद चांदनी, मदार और न जाने कितने जंगली फूल जिन्हें न कभी जुड़े में किसी ने सजाया न मंदिर में चढ़े, न ड्राइंगरूम की शोभा बने...क्यों इसका जवाब किसी के पास नहीं...क्योंकि पूछना मना है...बस सदियों से जो कहा जा रहा है उसे फॉलो करना है...एक रोज़ उसने अपने जूड़े में कनेर का फूल लगाया और इतराकर आईना देखा, आईना मुस्कुरा उठा. उसे लगा ये सारे फूल उसी के लिए छोड़ दिए गए हैं...ये सारे फूल सिर्फ उसके हैं...कोई भगवान नहीं, कोई शादी ब्याह नहीं, कोई बाज़ार नहीं...उसके जीवन में अब रंग-बिरंगे फूलों की भरमार है...सब उसके हैं...वो उन सबकी है...

अकेलापन भी ऐसा ही कनेर का फूल सा हो चला है...किसी को नहीं चाहिए...पूजा में वर्जित फूल...क्यों, यह पूछना मना है...लेकिन जिसने जमाने से बेपरवाह होकर इससे दोस्ती कर ली, उसे सुख हुआ...कि जिंदगी ज्यादा करीब महसूस होने लगी और अपने आपसे प्यार हो चला. अपने सुख की वजह जिसे बाहर ढूंढते फिरते रहे...वो अपने ही भीतर मिली...बस हथेलियाँ फैलायीं और टप्प से एक बड़ी सी बूँद गिरी हथेली पर...भीतर का सारा सूखा हरे में तब्दील होने लगा...

चाँद तनहा है, आसमां तन्हा-
ज़िन्दगी की राहों पर चलते-चलते एक रोज़ मुसाफिर थक के बैठा तो उसे अपनी छाया दिखाई दी...उसने रास्तों की ओर देखा, रास्ते की कोई छाया नहीं थी, ज़मीं अकेली थी, आसमान अकेला था...नदी चुपचाप बहती जा रही थी, किसी धुन सी गुनगुनाती, बलखाती अकेली, मगन अपने आप में...चाँद तनहा, तारों से भरे आसमान में हर तारा तनहा, तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लिए मेरा मन तनहा...तुम्हारे साथ तुम्हारी कामना और तुम्हारे बिना तुम्हारे होने का सुख खुद से मिलकर ही तो जाना है. अपना हाथ थामे बिना किसी और का हाथ कोई कैसे थाम सकता है भला, और अपना हाथ थामने के लिए ज़रूरी है थोडा सा अकेलापन, थोड़ी सी गुफ्तगू खुद से, थोडा सा रूमान जिन्दगी के साथ...तभी तो चाँद तारों से दोस्ती होगी जिसकी छाँव तले तुम्हारा होना महसूस हो सकेगा...वरना तो दुनियादारी ही निभती रहेगी रिश्तों में भी...

अकेलेपन की हाथ बढ़ाना, पाना खुद को-
कभी यूँ भी महसूस हुआ है कि बिना जाने ही चीज़ों को अपना लेने या ठुकरा देने का जो चलन है, उसने शायद हमारे साथ काफी ज्यादती की है. खामोशी की लम्बी लकीर के उस पार चाँद कितनी मोहब्बत से हथेलियों पर उतर आता है कभी जाना ही नहीं...भीड़ भरे जीवन में कभी फुरसत ही नहीं थी चाँद से घंटों बतिया पाने की, आसमान से उसके हाल पूछने की या अपना मन उनके आगे उड़ेल देने की...जब जरा अकेलेपन की ओर हाथ बढाया तो मालूम हुआ कि असल में अपनी ओर हाथ बढाया है. जिन सुखों की वजह कस्तूरी बनकर बाहर, दूसरों में ढूंढते फिर रहे थे वो अपने ही भीतर थी...बेवजह अपने सुखों की चाबी किसी और को देकर असल में अपने लिए दुःख जमा कर रहे थे...वो जो किसी के साथ होने का एहसास है वो हमारा उससे जुड़ने से जन्मा है और उसे ख़त्म कर पाना या कम कर पाना किसी और के हाथ में कैसे हो सकता है भला.

एहसास कभी जुदा नहीं होते, लोग जुदा होते हैं... अकेलापन उस एहसास में शिद्द्द्त से पैबस्त होना सिखाता है. मोहब्बत असल में अपने करीब आना ही है, बस कि शुक्रगुज़ार उस साथी का होना होता है जो हमारा हाथ पकड़कर हमें हमारे करीब ले आता है...फिर वो रहे न रहे...जिन्दगी तो महकती ही रहती है...खिलती ही रहती है...

तेरे न होने में होना तेरा-
वो जिसे इबादत कहती है दुनिया, पूजा कहती है, ईश्वर के सजदे में होना कहती है वो अकेलेपन की वही यात्रा तो है...ऐसी स्थिति में होना जहाँ आसपास की तमाम चीज़ों से डिस्कनेक्ट होकर अपने केंद्र पर पहुंचना, केंद्र जो हमारे ही भीतर है...बाहर की आपाधापी में जिससे लगातार हाथ छूटता गया....वापस वहीँ पहुँचने की कोशिश...यही तो है अध्यात्म...यही तो है पूजा.

अध्यात्म की वो स्थिति जहाँ पवित्र रूदन भी है और सघन मुस्कुराहटें भी. बाहर कोई नहीं, सब अंदर है. अकेलापन मन की सुन्दरतम स्थिति है बस कि हमें मालूम नहीं कि इसके साथ पेश किस तरह आयें, हम इससे भागते रहते हैं या इसे खरोंचते रहते हैं. इस कोशिश में लगातार खुद से दूर जाते रहते हैं. बिना खुद के पास आये, बिना खुद को मोहब्बत किये हम किसी को भी क्या प्यार कर पायेंगे, किसी के क्या करीब जा पायेंगे. इसीलिए देह के तूफ़ान उठते हैं, गुज़र जाते हैं...ठहरता कुछ भी नहीं...व्यक्ति जो देह के, आवेग के उस पार है, वहां पहुँचने की योग्यता हासिल करनी होती है...न न कोई साधू सन्यासी होने की बात नहीं है यह, बस अपनी प्याली की चाय के हर घूँट को ठीक से महसूस करने जैसा सरल और आसान है...चलो फिर उठाओ अपनी चाय का प्याला...अभी..

एक प्यारे से एहसास अकेलेपन को यानि अपने खुद के करीब होने को दुनियादारी के तमाम आवरणों से ढांककर मैला कर दिया गया..इसे उदासी का, निराशा का कारण बना लिया है...बीमारी की वजह बना लिया है...बीमारी की वजह अकेलेपन का होना नहीं है, अकेलेपन को ठीक से समझ न पाना है, उसकी मुठ्ठी में हमारे लिए बहुत कुछ है, लेकिन हम उससे डरकर छुप जाते हैं, घबराकर कहीं दूर भाग जाना चाहते हैं, रुदन में सिमट जाते हैं, बीमार होने लगते हैं...भीतर ही भीतर टूटने बिखरने लगते हैं...लेकिन अकेलेपन की मुठ्ठी को खोलते नहीं. नहीं देखते कि उसमें हमारे लिए कुछ चमकते हुए लम्हे हैं, खुद पर विश्वास करना है, जिन्दगी को ठीक से महसूस करने का सुख है, बारिशें हैं, चाँद राते हैं...हम इन सबसे मुंह मोड़कर बैठे रहते हैं अकेलेपन से घबराकर भागते फिरते हैं....

कभी जब इस नए दोस्त से दोस्ती हो जाएगी तो सिनेमाहॉल में एक टिकट लेकर एक कप कॉफ़ी ऑर्डर करके सिनेमा देखने का सुख महसूस होगा. अपनी सोहबत में अपने साथ मीलों पैदल का सफ़र तय करने का लुत्फ़ होगा. अपनी ही मुस्कुराहटों पर खुद निसार होकर तमाम बारिशों को, पंछियों के कोलाहल के बीच खुद को छोड़ देने का आनंद होगा. तब अकेलापन बीमारी नहीं जिन्दगी का उत्सव सा नजर आएगा...सच्ची.

अगर आप धार्मिक हैं तो अध्यात्म की उच्चतम स्थिति है अकेलापन और अगर आप यायावर हैं तो आप जानते ही हैं कि यायावरी अकेलेपन की वह उच्चतम स्थिति है जहाँ महसूसने की तमाम हदें टूट जाती हैं...किसी समन्दर के सामने धूनी लगाकर घटों एकटक ताकते हुए कोई मिले अगर आपको तो आप उसे अकेला या उदास समझकर तरस मत खाइएगा, उसके सुख़ में होने से ईर्ष्या ज़रूर कर सकते हैं.

अकेले रहना अकेलेपन की ज़रूरत नहीं-
अकेलेपन को अकसर लोगों के अकेले रहने से जोड़कर देखने का रिवाज़ सा है. अजीब बात है न? अकेलापन तो परिवार के साथ होते हुए, दोस्तों के साथ होते, भीड़ भड़क्के में, दुनियादारी के शोर के बीच भी खूब मिलता है...वो निदा फ़ाज़ली साहब की लाइन है न ‘ हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी, फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी...’ यानि अकेलापन और अकेले रहना दो अलग-अलग बातें हैं. हाँ, यह ज़रूर है कि कुछ लोगों ने अपने अकेलेपन को बचाए रखने के लिए खुद को दुनियादरी से दूर कर लिया धीरे धीरे और अकेले रहना भी चुन ही लिया. लेकिन वो दूसरी बात है, यह कोई ज़रूरी शर्त नहीं. बस एक ही दिक्कत है कि समाज, परिवेश, हम सब अभी इसे संभालना इसके साथ किस तरह पेश आना है ये समझ नहीं पाए हैं.

‘वो बहुत अजीब इन्सान है, न किसी से बोलता है, न चालता है, न कहीं आना न जाना...जाने क्या करता है अकेले. सामान्य नहीं है वो...’ अपने अकेलेपन में अपने काम को जीते, अपने जीवन को महसूस करते हुए इस तरह के लोग जब हमारे आसपास होते हैं तो उनको हम नॉर्मल नहीं होने की कैटेगरी में डाल देते हैं. दरअसल, ये हमारा उन्हें न समझ पाना है. ये न समझ पाना कि वो शायद खुद को समझ चुके हैं...और उन्होने अपनी जिन्दगी से बेवजह के सामान को कम कर दिया है. कुछ लोग भीड़ में रहते हुए भी अपने इस अकेलपन को बचा लेते हैं और अपनी सुबहों, अपनी शामों को अपनी मुताबिक जीने की कोशिश करते रहते हैं...कुछ लोग अपने अकेलेपन को एकांत में उठाकर ले जाते हैं...लेकिन यह तो तय है कि अकेलापन अकेले रहने की दरकार नहीं करता. जो अकेले रहते हैं वो अकेलापन नहीं भी जी रहे होते हैं और जो भीड़ में रह रहे हैं वो अकेलेपन को जी रहे भी हो सकते हैं.

ओ डॉक्टर बाबू, सुनो तो-
अगर किसी के जीवन में कोई है तो उसका होना उसके भीतर का भराव कितना है यह समझना होगा. ज्यादातर जो बीमारियाँ हैं, डिप्रेशन हैं जिनकी वजह अकेलापन माना जाता है वो बाहरी अकेलेपन की बात है. किसी का साथी बिछड़ गया, कोई लगातार असफल होता रहा, किसी को लगता है कि उसकी किसी को फ़िक्र नहीं...ये बाहरी स्थितियां हैं जो अंदर तक नकारात्मकता भर रही होती हैं और व्यक्ति डॉक्टर के चक्कर काटने लगता है, या कभी चुपचाप उदासी में सिमट जाता है. जबकि बाहर की हर स्थिति से आसानी से या मुश्किल से लड़ा जा सकता है. कभी कभी लगता है, न लड़ पाना, लड़ने की हिम्मत छोड़ देना भी अकेलापन का कारण बनता है, उदासी का, निराशा का कारण. अकेलापन नहीं, कुछ और हैं कारण उदासी के, समझना होगा, अकेलेपन के कंधे पर अपनी नाकामियों का बोझ डालना ठीक नहीं. जीवन में सब कुछ व्यवस्थित करने के लिए कमर कसिये, बाहर की दुनिया को दुरुस्त करिए और तब अपने साथ अकेले में बैठकर बात करिए...सुख मिलेगा...

वो जो दिखती है तन्हाई सी...
वो जो दूसरों को नज़र आती तन्हाई आपकी, वो पूरा सच है क्या? नज़र आने वाली तन्हाई में आसपास लोगों की भीड़ का कम होना होता है, जीवनसाथी या प्रेमी का न होना, परिवार या दोस्तों का न होना. जिन्हें ये नज़र आती है वो शुभचिंतक इस तन्हाई को लेकर एक अवसाद का तानाबाना बुनने लगते हैं...वो अपने साथ या साथी के होने के सुख से भरपूर होने के वहम का सुख अकेले व्यक्ति के कन्धों पर इस तरह उड़ेलते हैं कि उसे अपनी तन्हाई को छोड़कर उसके जैसा होने का जी चाहता है. वो भी किसी ‘और’ के ‘साथ’ की कल्पना में उदास होने लगता है, और धीरे-धीरे अकेलापन अवसाद में तब्दील होने लगता है...लेकिन हम ये कभी नहीं जान पाते कि जिनके जैसे न होने के दुःख में अकेलापन चुभ रहा है वो खुद भी बहुत अकेले हैं. वो जो अपने दोस्तों को तन्हाई से आज़ाद कराने के तमाम उपक्रम कर रहे हैं, वो खुद अपने भीड़ भरे घेरे में तन्हा ही हैं...बस न वो खुद को देख पा रहे हैं, न कोई और उन्हें देख पा रहा है.

जीवन को देखना नई नजर से-
जीवन हमें वैसा दिखता है, जैसा हम उसे देखते हैं. हम जीवन को वैसे ही देखते हैं जैसे उसे देखने के हम अभ्यस्त होते हैं या कराये जाते हैं. संभवतः समाज ने शुरू से ही अकेलेपन को नकारत्म्कता के साथ देखा और सारे नियम अकेलेपन को तोड़ने के बनाये. इसीलिए जीवन में अकेले हो गए या कर दिए गए लोगों के प्रति तरस का, सहानुभूति का या उपहास का भाव रखा. उन लोगों को तो खैर समाज कभी समझ ही नहीं पाया जिन्होंने खुद स्वेच्छा से अकेलापन चुना. समूची दुनिया ने उन्हें पागलों की श्रेणी में ही डाल दिया.
‘अजीब पागल जैसा शख्स था, घंटो अकेले बैठा दूर आसमान को ताकता रहता था...’
‘उम्र हो गयी, ब्याह कर दो ताकि इसका अकेलापन दूर हो जाये’...
’बेचारे का जीवनसाथी बीच सफ़र में बिछड़ गया, इससे बड़ा कहर कोई हो ही नहीं सकता’
‘ हाय बेचारा जीवन के सफ़र में अकेला रह गया’ इस तरह के जुमले अकेलेपन को हिकारत से, घबराहट से देखने के आदी बनाती है. अगर इस पहले से तयशुदा फ्रेम से अलग अकेलेपन को देखना, समझना आ जाए तो संभवतः इसका रचनात्मक उपयोग हो सके. और तब इसे लेकर बिसूरना बंद हो, सुकून संग हो...

मुग्धा होना जीना, मुस्कुराना-
उसे यह बात काफी पहले ही समझ में आ गयी थी कि ज़माने से बेपरवाह होकर ही जिया जा सकता है. वरना तो जिंदगी ज़माने के नीति नियमों पर चलते ही बीत जायेगी. मुग्धा मुस्कुराकर बताती है कि दरअसल बाहर का कोई व्यक्ति कभी जान ही नहीं सकता कि आपका अकेलापन कब है आपके साथ, और वो आपके साथ किस तरह से पेश आ रहा है. लेकिन बाहरी दबावों के चलते हम खुद को ही समझ नहीं पाते. सोचो तो, हमारा महसूस करना भी हमारा नहीं है, अजीब बात है न? जिन दिनों मैं दुनिया की नज़रों में खुश, कामयाब और ‘साथ’ से भरपूर थी असल में उसी वक़्त मैं सबसे ज्यादा तन्हा थी...लेकिन तब वो तन्हाई मुझे उदास करती थी. जीवनसाथी के साथ होते हुए, प्रेम से भरपूर होते हुए, दोस्तों के बीच हंसते हुए मैं अपने भीतर कोई खालीपन रेंगता महसूस करती थी...मुझे मालूम नहीं था कि मेरे भीतर क्या चल रहा था...बस कि सब छोडकर कहीं दूर भाग जाने को जी चाहता था. धीरे-धीरे मैंने भीड़ में होते हुए भी, लोगों के बीच होते हुए भी खुद को अलग करना सीख लिया...यह मेरे सुख की शुरुआत थी...अब लोगों के बीच होकर भी मैं अपने अकेलेपन को जीने लगी थी. संवाद मेरे इर्द-गिर्द से गुज़र जाते थे, लोग मेरे आसपास से गुजरते रहते थे...लेकिन मैं अपने अकेलेपन में सुरक्षित थी, खुश थी. धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि इस झूठ-मूठ के घेरों की ज़रूरत क्या है...क्यों न मैं अपने साथ रहूँ...और मैंने खुद का साथ चुन लिया...बस उसी दिन से मैं लोगों की आँखों की किरकिरी बन गयी. लेकिन मैं इसके लिए उन्हें दोष नहीं देती क्योंकि जिन्होंने गुड का स्वाद चखा ही नहीं, वो कैसे जानेंगे उसे...मेरे लिए तो मेरा अकेलापन एक नेमत है.

शादी का अकेलेपन से क्या रिश्ता है-
आकाश में टंगा ध्रुवतारा गवाही देता है कि इस धरती पर दो लोग अब एक हो जायेंगे और उन दोनों के जीवन में एक दूजे का साथ गुंथ जायेगा. लेकिन शादी का अकेलेपन से क्या रिश्ता है आखिर? क्या दो लोगों का एक साथ रहना, देह के रिश्ते से जुड़ना, जिम्मेदारियों के रिश्ते से जुड़ना अकेलपन से मुक्ति का रास्ता है...अगर ऐसा है तो कोई भी शादीशुदा व्यक्ति तन्हा होता ही नहीं. जाने क्यों अकेलेपन को दूर करने के उपाय के तौर पर शादी को देखा जाता है और दो अकेले लोगों को एक-दूसरे की उपस्थिति में अकेले रहने की ओर धकेला जाता है. अकेलापन भीतर की स्थिति है, जिसे किसी बाहरी की उपस्थिति से कम या ज्यादा तो किया जा सकता है, दूर नहीं किया जा सकता.

एक तो औरत, वो भी अकेली, फिर भी खुश ?

एक रोज़ जिंदगी के करीब बैठकर जब वो चाय का आखिरी घूँट गटक रही थी, उसे महसूस हुआ कि जिंदगी भी उसके करीब आने को उतनी ही उत्सुक थी जितनी वो उसके करीब जाने को. लेकिन वक़्त जिस तरह ज़र्ररररर से निकला जा रहा था, उसे यही लगता रहा कि जिंदगी उससे भागती फिर रही है...कभी गुस्से में उसने भी कहा ‘ओये जिन्दगी, जा मैं तुझे छोड़ दूँगी...’ लेकिन ठीक उसी वक़्त जिन्दगी ने उसके सर पर हाथ रख दिया था. दोनों फफक के रो पड़ीं...जिन्दगी ने कहा, ‘मैं तो तुझे छोड़कर कभी नहीं गयी...बस तेरे मेरे बीच लोगों का, काम-काज का, रस्मो-रिवाज का सैलाब आ गया था. और हम दोनों एक दूसरे से दूर होते गए...’

बस उस रोज़ दोनों में दोस्ती हो गयी...उसने दोनों के बीच आये सैलाब को कम करना शुरू किया, रस्मो-रिवाज के तौर पर किये जाने वाले तमाम काम बंद किये, वो करना शुरू किया जो उसका दिल चाहता था...उसने लोगों की भीड़ से खुद को अलग किया और उनका साथ चुना जिनका होना या न होना उसके भीतर की दुनिया में भी दखल रखता था. नाममात्र के जो रिश्ते नाते थे साथ होकर भी जिनके साथ को कभी महसूस नही किया था, उसने उन सबसे किनारा कर लिया और इस तरह उसकी जिंदगी से दोस्ती मजबूत होती गयी लेकिन एक और ही लेबल चस्पा हुआ फिर उसके माथे पर...अकेली औरत.

वो मुस्कुराई, अकेली होना अकेलेपन में होना नहीं है. अकेलेपन में होना उदासी में होना नहीं है...अकेली जब थी तब किसी को लगी ही नहीं, उदास जब थी, तबकी तमाम तस्वीरों में मुस्कुराहटें तारी हैं ही लेकिन अब जबकि जिंदगी जीने का मज़ा आने लगा है, अपने अकेलेपन का स्वाद महसूस होना शुरू हुआ है तब सारे ज़माने को तन्हाई नज़र आती है...तन्हाई में भी एक बेचारगी...लेकिन भला ये कैसी बात हुई कि ज़माना आंसू पोछने को रूमाल लिए खड़ा था, कन्धा बनकर सांत्वना देने को आतुर था और वो मुस्कुराकर अपने जूते के फीते कस रही थी...कि जिन्दगी के सफ़र पे उसे बहुत दूर जाना था जहाँ उसे उसका वजूद पुकार रहा था...उसका अपना होना, अपनी ख़ुशी, अपने दुःख...जंगल की खुशबू बाहें पसारे उसके इंतजार में थी और समन्दर की लहरें टुकुर-टुकुर उसकी बाट जोह रही थीं...वो हंस रही थी, मुस्कुरा रही थी, खिलखिला रही थी, गुनगुना रही थी...

और फिर ज़माने की त्योरियां चढ़ीं...ऐसी कोई लड़की होती है क्या...पति से अलग होकर अकेली रहती है और फिर भी खुश रहती है...शादी न करके भी खुश रहती है, ज़रूर कुछ गड़बड़ है...लो जी, तैयार हो गया उसका नया कैरेक्टर सर्टिफिकेट...लेकिन जिसने जीना सीख लिया हो उसने लड़ना भी सीख ही लिया होगा. जिसने लड़ना सीख लिया होगा उसने जमाने के दिए तमाम अच्छे बुरे सर्टिफिकेट भी उठाकर फेंक ही दिए होंगे...और जिसने ये सब कर लिया होगा वो अकेले रहती हो या भीड़ में अपना हाथ मजबूती से थाम ही चुकी होगी...ज़ाहिर है ज़माने की आँख की वो किरिकिरी मुस्कुराकर देखती है ज़माने को, उसकी नादान सोच को, पीठ दिखाकर चल देती है आगे और पलटकर कहती है जिसे तुम अकेलापन समझते थे वो दरअसल अपना होना था, जिससे अब तक भागते फिरती थी वहीँ पनाह थी...समझे तुम...?

ज़माना सुन तो रहा है उसकी बात लेकिन समझ नहीं पा रहा कि जिसके कंधे पर अकेले छूट जाने का, अकेलेपन का इतना बड़ा बोझ हो वो इस कदर खुश कैसे हो सकती है...एक तो औरत, वो भी अकेली, फिर भी खुश...? वो आँखे मिचमिचाते समाज के इस असमंजस पे हंसती है...

तुम गए तो गये कहाँ –
कोई रोके उसे और ये कह दे कोई अपनी निशानी देता जा
गर ये भी तुझे मंजूर नहीं तू याद भी अपनी लेता जा...

अमीरनबाई की आवाज़ घर में गूँज रही थी और जाने वाले की याद जीवन में. वो जिसके जाते ही घुप्प अँधेरा घिर आया था जीवन में, रौशनी से रिश्ता टूट गया था, जिन्दगी से मोह ख़त्म हो गया था...दिन रात अतीत के पन्ने सेल्युलाइड के परदे की तरह जेहन में घूमते रहते...सवाल घुमते रहते, वो कहाँ होगा, किसके साथ होगा, वो खुश होगा शायद...ये सोचकर उसकी शामें, उसकी सुबहें उसके दिन और रात सब उदास हो चले थे...

जीवन में विकट अकेलापन घिर आया था, कितने उपाय किये, कितनी तरकीबे लगायीं लेकिन कोई काम न आई...अकेलापन अवसाद बनने लगा, दुःख जीवन. उसे अपने अकेलपन में ही सुख मिलने लगा. धीरे-धीरे दोनों को एक दूसरे की आदत हो गयी...बहुत वक़्त लगा लेकिन एक दिन दोनों में दोस्ती हो ही गयी.

जिन्दगी ने पूछा, ‘उदास क्यों हो, जिसके लिए उदास हो वो कौन था...उसके प्रति प्रेम तुम्हारे भीतर था या बाहर था. अगर वो भीतर था, तो वो बाहर से कैसे जा सकता है...’ वो ध्यान से सुनती रही...एक रोज उसी अकेलेपन का हाथ पकड़कर वो बाहर आ गयी...अब आंसुओं की जगह मुस्कान थी...जेहन में उसकी याद थी, लेकिन दुःख नहीं.

उसने महसूस किया इस दौरान उसने खुद के स्त्री होने को कितना कोसा था. ‘क्यों कोसा होगा अपने स्त्री होने को मैंने,’ उसने खुद से पूछा क्योंकि हर दुःख स्त्री के जीवन से जुड़ते ही दोगुना बना देता है समाज और सुख आधा. दुःख में लिपटी स्त्री को तो देखने की आदत है सबको लेकिन दुःख से, अवसाद से, अकेलेपन से लड़कर जीतकर बाहर निकलकर हंसती, मुस्कुराती स्त्री को देखने की आदत नहीं है. इसीलिए उसे स्त्री होने के नाते अपने दुःख से लड़ने की बजाय उसे नियति मान लेना सिखाया गया. जहाँ पुरुषों को उनके अकेलेपन से लड़ने के लिए तुरंत समाज उसके लिए जल्दी से नया जीवनसाथी, काम, बदला हुआ माहौल जमा करने लगता है, दूसरी और स्त्री को धीरज रखने, सहने की ताक़त जमा करने, बच्चों का मुह देखकर उनके लिए जीने के नाम के हौसले दिए जाने लगते हैं. अकेलापन वो महसूस न करें, इसके लिए उनकी दुनिया को घर परिवार पति की जिम्मेदारियों को ठीक से निभाने की तरफ ही मोड़ा जाता है. लेकिन बहुत कम स्त्रियाँ जान पाती हैं इस सबके बीच ही वो कितना अकेलापन जी रही हैं. वो अकेलापन, जिसे ठीक ठीक पहचानना ही नहीं आया उनको, उसे सकारत्मक दिशा देने की तो बात ही अलग है.

कोई स्त्री या कोई पुरुष या समाज यह कभी नहीं जान पाता की लिपस्टिक की आड़ से मुस्कराती, घर परिवार और अब नौकरी संभालती हुई स्त्री लगातार कब और कैसे एक चिडचिडी स्त्री में तब्दील होती जा रही है. क्यों और कब वो पुरुषों के दुनिया में फूहड़ चुटकुलों का मसाला हो चुकी है जिस पर वो खुद भी हँसना सीख चुकी है...ये भीड में रहते हुए भी हमारे साथ जो अकेलापन चलता रहता है, जिसकी ओर हम आँख भर देख भी नहीं पाते, उसे महसूस भी नहीं कर पाते वो किस तरह अन्दर ही अन्दर खोखला और निरर्थक कर देता है. खासकर तब जब आप स्त्री हों.

तुम्हारा तो घर है फिर भी-
भला बताओ जिसका अच्छा भला पैसे वाला, रुतबे वाला प्यार करने वाला पति हो, प्यारा सा बेटा हो, दोस्तों में अच्छी साख हो, सोसायटी में कभी कभार चीफ गेस्ट बनने के मौके मिलते हों, फेसबुक पर लाइक्स और कमेंट्स की भरमार हो, ट्विटर पर फौलोअर्स की बाढ़ हो फिर भी वो एक रोज बिना किसी को वजह बताये घर से अलग रहने का फैसला कर ले अजीब बात है न? वो घर छोड़ना नहीं था, अपने आपसे खुद को जोड़ना था...अब एक कमरे के छोटे से फ़्लैट में रहती है, छोटी सी नौकरी करती है, घुमक्कड़ी करती है और खुश रहती है, अब वो अकेली रहती है और अकेले रहने को और अकेलापन दोनों को भरपूर जीती है...पहले वो सबके बीच अकेली रहती थी लेकिन अकेलेपन की उदासियों से भीतर ही भीतर गलती जा रही थी...

फिल्म ‘पिंक’ में जब वकील लड़की से पूछता है कि ‘तुम्हारा तो घर है इसी शहर में फिर तुम अकेले क्यों रहती हो’ तो कितने गिजगिज़ाते हुए सवाल शामिल थे इसके भीतर जिसका सिर्फ एक ही जवाब है हर लड़की के पास, ‘क्योंकि वो अपना होना जीना चाहती थी.’ तो क्या जो लोग परिवार में रह रहे हैं, समाज के नियमों पे चल रहे हैं वो अपना होना नहीं जी रहे हैं? या उन सबको घर छोड़ देने चाहिए? यही है न अगला सवाल?

अकेलापन तो भीड़ में भी है ही सबके भीतर, लेकिन कुछ को इसके होने के खबर है, कुछ को पता ही नहीं चलता और वो दूसरी ही बाहरी वजहों पर चीखकर, चिल्लाकर खुद को खत्म करते रहते हैं...हाँ लेकिन अकेलेपन को जीना कम ही लोगों को आता है...ज्यादातर उसमें मर ही रहे होते हैं...दुःख और अवसाद उगा लेते हैं इससे. स्त्रियों के मामले में यह और ज्यादा होता है...सुखी औरत से हाय बेचारी अकेली औरत के बीच वो कब कहाँ कितनी तनहा है ये न वो खुद समझ पाती है और न ही कोई और...लेकिन जिस दिन समझ जाती है न उस दिन दुनिया उसे नहीं समझ पाती, दुनिया उसे हैरत से देखती है और वो मुस्कुराकर कहती है ‘अपने पास हूँ मैं, किसी और की ज़रूरत नहीं, समूचा आसमान है मेरे पास समूची धरती....और समूचा जीवन, तुम जिसे कहते थे अकेलापन...वो असल में मेरा होना था...’

('अहा जिन्दगी' के दिसम्बर अंक में प्रकाशित )

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-01-2017) को "नए साल से दो बातें" (चर्चा अंक-2575) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
नववर्ष 2017 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

priyanka pandey said...

प्रतिभा जी, अकेलापन इतना खूबसूरत होता है, ये आपकी लेखनी से जाना और समझने की कोशिश में कई बार पढ़ा। बहुत उम्दा लिखती हैं आप।