Thursday, May 3, 2018

क्या यह कोई यूटोपिया है ?

- प्रतिभा कटियार

सोचा था कुछ ख्वाब बुनूँगी, पालूंगी पोसूंगी उन ख्वाबों को. उनकी नन्ही ऊँगली थामकर धीरे-धीरे हकीकत की धरती पर उतार लाऊंगी. फिर वो ख्वाब पूरी धरती पर सच बनकर दौड़ने लगेंगे. नफरत का शोर थमेगा एक दिन कि लोग थक जायेंगे एक-दूसरे से नफरत करते-करते. बिना जाति धर्म देखे किसी के भी कंधे पर सर टिकाकर सुस्ताने लगेंगे. सोचा था एक रोज जिन्दगी आजाद होगी सबकी किसी भी तरह के भी से, और आज़ादी के मायने नहीं कैद रहेंगे कागज के नक्शे पर दर्ज कुछ लकीरों में. सोचा था कविताओं से मिट जाएगा सारा अँधेरा एक दिन और धरती गुनगुनायेगी प्रेम के गीत. नहीं जानती थी कि यह कोई यूटोपिया है, नहीं जानती थी कि ये ख्वाब देखने वालों की आँखों को ही ख़तरा होगा एक रोज. नहीं जानती थी कि जिन्दगी को सरल और प्रेम भरा बनाने का ख्वाब इतना जटिल होगा और उसे नफरत से कुचल दिया जाएगा.



हमारे सामने जो समाज है, जो आसपास से उठता धुआं है, यह जो मानव गंध है, हथियारों की आवाजें हैं, मासूमों की कराहे हैं, जुर्म हैं, जुर्म छुपाने के इंतजामात हैं वो किसने बनाये हैं आखिर? क्या हम सब इसमें शामिल नहीं हैं. हालात के प्रति निर्विकार होना भी हालात में शामिल होना ही है. अपने प्रति हो रहे जुर्मों को न समझ पाना भी एक समय के बाद अज्ञानता नहीं मूर्खता बन जाती है.



राजनीति से परे कुछ भी नहीं, मौन भी राजनीति है, बोलना भी. किस वक़्त मौन होना है किस वक़्त चीखना है सब राजनीति है, इस राजनीति को समझना जरूरी है. हर किसी को. कोई राजनैतिक दल नहीं होते कभी इंसानों के साथ वो खड़े होते हैं अपने दलगत स्वार्थों के साथ. उनकी भाषा,उनके जुमले, उनके आंसू, उनके वादे सब झूठ है, हमें खुद खड़ा होना एक दूसरे के साथ मजबूती से ठीक उसी तरह जैसे हम खड़े थे अंग्रेजों के खिलाफ. देश के भीतर के, अपने आसपास के और कई बार तो अपने ही भीतर के दुश्मन को पहचानना होगा हमें. कि अब नहीं तो कब आखिर?



यह हमारे बच्चों के लिए जरूरी है. उनके आज के लिए उनके आने वाले कल के लिए. कैसा आज दिया है हमने अपने बच्चों को, कैसा भविष्य रख रहे हैं हम उनकी हथेलियों में क्या हम सचमुच सोच नहीं पाते? क्यों हमारी आँखों में ठूंस दिए गए दृश्य ही हमारा सम्पूर्ण सत्य बन जाते हैं और हम उन जबरन दिखाए दृश्यों के आधार पर खून खराबे पर उतर आते हैं. इससे ज्यादा दुखद क्या होगा कि हमने दर्द का बंटवारा कर लिया है. एक धर्म का दर्द दूसरे धर्म के दर्द से बदला ले रहा है. ईश्वर सो रहा है बावजूद हमारे तमाम घंटे घड़ियाल बजाने के. अल्लाह भी खामोश है सब देख रहा है चुपचाप हालाँकि अज़ान की आवाज गूंजती है वक़्त की पाबंदी के साथ.



मुझे ये दुनिया नहीं चाहिए. मैं अपने बच्चों को डर के साए में घर से विदा नहीं करना चाहती, मैं नहीं चाहती कि मेरा बच्चा किसी भी तरह की किसी से भी नफरत के करीब से भी गुजरे, इन्सान ही नहीं पशु, पक्षी प्रकृति से भी उसे हो वैसा ही लगाव जैसा मुझे है उससे. क्या यह असम्भव है? क्या हम सब ऐसा नहीं चाहते? इसके लिए कोई कानून नहीं आएगा इसके लिए हमें अपने भीतर उतरना पड़ेगा. जबरन हमारे भीतर जो बंटवारे उंच नीच, धर्म जाति स्त्री पुरुष की खाइयाँ बना दी गयी हैं हमारे जन्म से ही उसे पहले समझना होगा, उसे पाटना होगा. कि जन्म सबका धरती पर हुआ है इस धरती को खूबसूरत बनाने और पहले से खूबसूरत धरती के सौन्दर्य को जीने के लिए. शुरुआत हमको ही करनी होगी खुद से. आइये, खुद से बात करना शुरू करें बिना किसी पूर्वाग्रह के...

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत जरूरी है। सटीक।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-05-2017) को "इंतजार रहेगा" (चर्चा अंक-2961) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन संगीतकार - नौशाद अली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।