Thursday, December 31, 2009

ये साल अच्छा है...

यूं ही
कोई उसके सिरहाने
उम्मीदों की
एक शाख छोड़ जायेगा,
यूं तो
कुछ भी नहीं बदलेगा
लेकिन सच में
सब कुछ बदल जायेगा।

नदी के किनारे से उगे आज के सूरज में नये साल की मासूमियत भी है और ढेर सारा उत्साह भी. जैसे इसकी किरणें छू-छूकर हमें पूरे जोश के साथ खड़ा होने की ताकीद कर रही हैं. कह रही हैं कि सिर्फ कैलेण्डर को मत बदलो, अपनी तकदीर भी बदल लो. हर वो खुशी का लम्हा जो तुम्हारा हो सकता था, किन्हीं कारणों से कहीं अटक गया, इस बरस वो लम्हा खींचकर अपने करीब कर लो. मुंह मोडऩा है तो क्यों न उन चीजों से मोड़ा जाए जो परेशान करती हैं।

जाने कैसी फितरत होती है हम सबकी, जो चीजें ज्यादा परेशान करती हैं उन्हें ही हम सबसे ज्यादा याद करते हैं, अपने करीब आने देते हैं. इस बरस ऐसा कुछ भी नहीं होने देना है. जब उम्मीदों का समंदर हमारे चारों ओर लहरा रहा हो तो क्यों न हम इसमें से आशा के मोती चुनें. पार्टी, मस्ती, धूम धड़ाका इन सबके $जरिये भी आता है नया साल बहुतों की जिंदगी में. इनकी अपनी अहमियत है लेकिन एक झुग्गी के बाहर लगे गुब्बारे और अंदर से उठता शोर ज्यादा रोमांचित करता है. किसी भी फाइव स्टार होटल में हुई न्यू इयर की पार्टी से किसी भी मायने में कम नहीं होती यहां की पार्टी. एक टाइम का पूरा खाना बनता है, भरपेट खाने को मिलता है, कुछ मीठा भी।

अगले साल ज्यादा कमाई करके पड़ोसी के यहां टीवी न देखने पड़े इसलिए अपना टीवी खरीदने का रिजोल्यूशन है यहां. ये सब नये साल के चलते है. बागीचों में खिले फूलों की एक-एक पंखुरी मानो मुस्कुराकर कह रही है, अब तो कर लो दुनिया मुट्ठी में, अब तो भर लो आसमान को बाहों में, अब तो निकाल सको वक्त किसी के दामन से दर्द को पोंछकर मुस्कान सजाने का. क्या सारी ख्वाहिशें सिर्फ डायरी में रखी रह जायेंगी. ये एक अलार्म है जो हर बारह महीने बाद हमारे लिए बजता है. रोजमर्रा की जिंदगी में वो ढेर सारे काम जो हम दिल से करना चाहते थे कर नहीं पाये, उनकी याद दिलाने का. वो बातें जिन्हें हम कह नहीं पाये, उन्हें कह सकने की हिम्मत दिलाने का, वो अहसास जिन्हें महसूस करते हुए हम घबराते रहे और जो लगातार हमारा पीछा करते रहे, उनसे रू-ब-रू होने का, वो सपने जिन्हें देखते आंखें घबराती थीं उन्हें पलकों में सजाने का।

कहते हैं कि दुनिया वैसी ही दिखती है जैसी हम उसे देखना चाहते हैं. तो क्यों न हम इसे पॉजिटिव विजन से देखें. जो नहीं है वह देखने की बजाय जो है उसे देखें और जो नहीं है उसे हासिल करने के प्रति कटिबद्ध हों. दुनिया अच्छे लोगों से भरी पड़ी है, अच्छी चीजों की कमी भी नहीं है यहां फिर भी जाने क्यों और क्या तलाशते फिरते हैं सब. अरसा हो गया एक फुरसत का लम्हा खुद के साथ बिताये, इस नये साल में क्यों न यह काम भी कर लिया जाए. क्यों न इस नये साल में ख्वाबों को छूट देकर देखा जाए. चिडिय़ा, नदी, पेड़ होकर देखा जाए. वो सब करने की कोशिश की जाए जो दिल में है, जिसके लिए कभी वक्त ही नहीं मिला. करियर की आपाधापी और परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए अपना-अपना जो हिस्सा हमसे कहीं छूट गया क्यों न उस हिस्से को सहेजा जाए. खुश रहा जाए. खुश रहने की ढेरों वजहें हमारे आस-पास हैं लेकिन हम न जाने क्यों उदासी को ओढ़े घूमते हैं. क्यों न इस बार इस नये साल में उदासी, अपने भीतर की एक अनमनी सी चिढ़, झुंझलाहट को विदा किया जाए. हो सकता है ऐसा करते ही हम मुस्कुराहटों, खिलखिलाहटों के लिए जगह बना सकें. हो सकता है इस तरह जीने के बाद यह नया साल जब पुराना होकर हमारे सामने आये तो हमें बेहद अ$जीज लगे।
सबको नया साल मुबारक!
- प्रतिभा

Saturday, December 26, 2009

चाँद से दोस्ती

चांद से मेरी दोस्ती
हरगिज न हुई होती
अगर रात जागने
और सड़कों पर फालतू भटकने की
लत न लग गई होती
मुझे स्कूल के ही दिनों में
उसकी कई आदतें तो तकरीबन
मुझसे मिलती-जुलती सी हैं
मसलन वह भी अपनी कक्षा का
एक बैक बेंचर छात्र है
अध्यापक का चेहरा
ब्लैक बोर्ड की ओर घूमा नहीं
कि दबे पांव निकल भागे बाहर...
और फिर वही मटरगश्ती
सारी रात सारे आसमान में...
- राजेश जोशी

Thursday, December 24, 2009

मासूम से कुछ सवाल

बचपन में देखी गई फिल्मों में से मुझे कुछ ही याद हैं. उनमें से एक फिल्म मासूम भी है. मासूम फिल्म बचपन में देखे गये के हिसाब से तो लकड़ी की काठी के लिए याद होनी चाहिए लेकिन जाने क्यों जेहन में शबाना आजमी की वो तस्वीर चस्पा है जब उसे नसीर की जिंदगी की दूसरी औरत के बारे में पता चलता है. वो शबाना की खामोशी...और दु:खी, गुस्से में भरी, तड़पती ढेरों सवाल लिए खड़ी आंखें...उन आंखों में ऐसी मार थी कि उन्हें याद करके अब तक रोएं खड़े हो जाते हैं।
खैर, फिल्म सबने देखी होगी और यह भी कि नसीर किस तरह माफी मांगता है शबाना से, किस तरह शर्मिंदा है अपने किए पर और शबाना उसे लगभग माफ कर ही देती है. इसके बाद कई सारी फिल्मों में पुरुषों की गलतियां और उनके माफी मांगने के किस्से सामने आते रहे. समय के साथ स्त्रियों के उन्हें माफ करने या न करने के या कितना माफ करना है आदि के बारे में राय बदलती रही. वैसे कई फिल्मों में बल्कि ज्यादातर में पुरुष अपनी गलतियों के लिए माफी नहीं भी मांगते हैं बल्कि अपनी गलतियों को कुछ इस तरह जस्टीफाई करते हैं कि उसकी गल्ती के लिए औरत ही जिम्मेदार है, लेकिन आज बात माफी मांगने वाले पुरुषों की ही।
इसी माफी मांगने वाले फिल्मी पुरुषों की कड़ी में पिछले दिनों फिल्म 'पा' का एक पुरुष भी शामिल हो गया. पुरुष यानी फिल्म का नायक अमोल अत्रे. अमोल और विद्या का प्रेम संबंध बिना किसी फॉमर्ल कमिटमेंट के एक बच्चे की परिणिति का कारण बनता है. अमोल बच्चा नहीं चाहता, इन फैक्ट शादी भी नहीं करना चाहता. देश की सेवा करना चाहता है. करता भी है. उसे पता भी नहीं है कि उसका कोई बच्चा है, वह इस इंप्रेशन में है कि उसका बच्चा विद्या ने अबॉर्ट कर दिया है. लेकिन तेरह साल बाद जब ऑरो के रूप में उसे अपनी संतान का पता चलता है तो अमोल (अभिषेक) तुरंत अपनी पिछली से पिछली गलती को समझ जाता है. उसे एक्सेप्ट कर लेता है और पूरे देश के सामने एक रियलिटी शो में विद्या से माफी मांगता है और बच्चे को अपनाता भी है. अमोल एमपी है, उसका शानदार पॉलिटिकल करियर है. फिर भी वह माफी मांगता है इन चीजों की परवाह किये बगैर. विद्या का गुस्सा इस सबसे शांत नहीं होता. वह उसे माफ भी नहीं करती. वह अमोल के गले की हिचकी नहीं बनना चाहती।
कहां गए माफी मांगने वाले पुरुष मेरे दिमाग में इस दौरान एक बात घूमती रही कि असल जिंदगी में इस तरह से माफी मांगने वाले पुरुष कहां गायब हैं. हां, गलतियां करने वाले पुरुषों की संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन जैसे-जैसे वे समझदार हो रहे हैं, उनकी तार्किक शक्ति बढ़ रही है. अपनी चीजों को जस्टीफाई करने के तर्क भी. यथार्थ में माफी मांगने वाले पुरुष नदारद हैं. रिश्तों में माफी का बड़ा महत्व होता है. कोई भी माफी मांगने से छोटा नहीं होता. यह गुरुमंत्र जब मांएं अपनी बेटियों को दे रही होती हैं, तब उन्हें नहीं पता होता कि इसकी ध्वनि कुछ इस तरह जा रही है कि गलती कोई भी करे तुम माफी मांग लेना और सब ठीक हो जायेगा. ऐसा होता भी रहा है।
इसी मंत्र ने परिवारों की बुनियाद को मजबूत बनाये रखा. दूसरों की गलतियों का इल्जाम अपने सर लेकर, खुद ही माफी मांगने के बावजूद, पिटने के बावजूद रिश्ता बचाने की जद्दोजेहद में औरतों ने अपने वजूद से ही लगभग किनारा कर लिया है. आत्म सम्मान वाली औरतें पुरुषों को लुभाती हैं, लेकिन वे घर की औरतें नहीं होतीं.आखिर क्यों है ऐसा? दुनिया बदल रही है. समझदारियां भी बढ़ रही हैं. रिश्तों में स्पेस, डेमोक्रेसी जैसे शब्दों ने भी अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है. लेकिन यहीं कुछ गड़बड़ा रहा है. वो माफियां जो पुरुषों की जानिब से आनी थीं, उनका स्पेस खाली पड़ा है. स्त्रियों को उनका स्पेस मिले न मिले लेकिन माफियों का वो स्पेस रिश्तों के दरमियान लगातार बढ़ रहा है. जीवन फिल्म नहीं होता. जीवन में पुरुषों के पास माफी से बड़ा अहंकार होता है. जिसे पालने-पोसने में ही वे पुरुषत्व मानते हैं. जहां समझदारियां थोड़ी ज्यादा व्यापक हैं वहां माफियां आ तो जाती हैं लेकिन कुछ इस रूप में कि वे भी किसी सजा से कम नहीं होतीं. क्या इतना मुश्किल होता है पुरुषों का माफी मांगना. रिश्तों को संभाल लेने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों के मत्थे मढ़कर कब तक परिवारों के सुरक्षित रहने की खैर मनायी जा सकती है।
- प्रतिभा कटियार
इस लेख को यहाँ भी देखा जा सकता है....
http://thatshindi.oneindia.in/cj/pratibha-katiyar/2009/why-is-it-so-hard-men-say-sorry.html

Friday, December 18, 2009

इक बार कहो तुम मेरी हो

हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो ।
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो ।
क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
- इब्ने इंशा

Friday, December 11, 2009

कुछ सूखी, कुछ गीली हँसी

तुम्हें सरगम का कौन सा सुर सबसे ज्यादा पसंद है? लड़के ने पूछा. लड़की मुस्कुराई...ठहर गई...फिर कुछ सोचते हुए आगे की ओर बढ़ चली।
नहीं बताऊंगी...कहकर खिलखिलाते हुए वह भागती गई...भागती गई...
उसकी आवाज में तमाम शोखी, शरारत हसरतें घुलने लगीं. उसकी हंसी में पलाश खिलने लगे...सरसों फूलने लगी...नदियां लहराने लगीं...उस हंसी में कोयलों की कूक थी...पपीहे की पीऊ थी...मौसम टुकुर-टुकुर लड़की को देख रहा था। लड़की का बचपन भी उसकी हंसी में जा मिला था. किलकारी सी मालूम होती थी वो हंसी. हंसी ही हंसी....चारों तरफ हंसी के फूल खिल उठे थे। लड़का बड़े असमंजस में था. वहीं खड़ा रहा वो देर तक. उस हंसी के अर्थ ढूंढने की कोशिश में।
उस नहीं बताऊंगी...में उसने क्या बताना चाहा यह जानने के फेर में. लेकिन उसे कुछ खास समझ में नहीं आया. सर खुजलाते हुए, पलकें झपकाकर वह बस इतना बुदबुदाया, पागल ही होती हैं सारी लड़कियां....इन्हें कोई समझ नहीं सकता. कभी तो खूब हंसने वाली बात पर भी ऐसी मरियल सी हंसी आती है चेहरे पर, जैसे एहसान उतार रही हों और कभी बिना बात के ही हंसी का खजाना लुटाया जा रहा है. लड़के को समझ में नहीं आता कि कब लड़कियों की चुप्पी आवाज बन जाती है और कब दर्द हंसी...कब वह बोल बोलकर अपनी खामोशी को सुरक्षित कर लेती हैं और कब रो-रोकर मन को खाली कर रही होती हंै. बड़ी पहेली है यह तो।
अचानक लड़का चौकन्ना हो उठा. उसे लगा लड़की को इस तरह हंसते देख कोई न$जर न लगा दे उसे. वह तेज कदमों से बढ़ा उसकी ओर।
ठहरो...अरे, सुनो तो...रुक जाओ ना...वो आवाजें दे रहा था।
लड़की भागती जा रही थी...लड़का भी भागता जा रहा था...
लड़की की खिलखिलाहटें बढ़ती ही जा रही थीं. लड़की कभी-कभी ही हंसती है और तब उस हंसी में न जाने कितना खालीपन, दर्द, अवसाद सब तैर जाते हैं. कभी भीगती, कभी सूखती, गुमसुम कभी तो कभी लगता हरसिंगार अकोर के बिखरा दिये गये हों उस हंसी के बहाने. आज उसकी हंसी हरसिंगार बनके बिखर रही थी...लड़का उसके पीछे भागते-भागते अब थकने लगा था।
तभी आसमान बादलों से भरने लगा. न जाने कैसे बेमौसम बरसात शुरू हो गई. लड़की आसमान की ओर मुंह करके मुक्त होकर नाच रही थी कि टप्प से एक बूंद पड़ी उसके माथे पर. वह मुस्कुरा उठी. लड़का घबरा गया. बारिश आ गई...भागो...जल्दी...भीग गई तो बीमार पड़ जाओगी...
लड़का बूंदों से बचने के लिए भाग रहा था।
बच्चे भाग रहे थे...
गैया भी चल पड़ी थी पेड़ की तलाश में...
बछड़ा भी...
सड़क पर चलते लोग भी...
सब भाग रहे थे।
लेकिन लड़की...वो अब ठहर गयी थी. बूंदों को वो अपने आंचल में भर रही थी कि बारिश उसे अपने आगोश में ले रही थी कह पाना मुश्किल था. लड़की बारिश हो गई थी...बारिश लड़की हो गई थी. टिप्प...टिप्प...टिप्प...वह भीग रही थी. तन से...मन से... उसका शरीर पिघल रहा था. बारिश की बूंदों के साथ उसने खुद को भी बहते हुए महसूस किया।
लड़का अब घबराने लगा था. ये सुन क्यों नहीं रही।
वापस आ जाओ...घर जाना है...देर हो रही है... अब मत भीगो...तुम्हें सर्दी लग जाएगी...बीमार पड़ जाओगी...लड़का बोले जा रहा था।
लड़की सुन रही थी, टिप..टिप...टिप...थोड़ी देर में बारिश थम गई. लड़के ने लड़की की बांह जोर से पकड़ते हुए गुस्से में पूछा, पागल हो गई हो...? कोई ऐसे भीगता है क्या॥?
लड़की मुस्कुरा दी।
नहीं भीगता तभी तो जीवन भर सूखा ही रहता है. किसी भी चीज को पाने के लिए उससे एकसार होना पड़ता है। अब मैं बारिश बन चुकी हूं. पानी ही पानी...मेरे मन का कोना-कोना भीग चुका है. और तुम? लड़का अचकचाया. क्या बेवकूफी है? चलो घर चलो. लड़के ने कहा।
सुनो...लड़की ने कहा. तुम्हारे सवाल का जवाब देती हूं. सरगम के सातों स्वरों में से मुझे सबसे ज्यादा पसंद है पंचम. प से पंचम, प से प्राण, प से प्यास, प से पानी प से प्यार...स से नी तक जाते हुए पंचम पर ठहर ही जाता है मेरा मन. सबसे सुंदर सुर है पंचम...लड़की अब भी मुस्कुरा रही थी।
लड़का अब तक अपने सवालों के षडज यानी स में उलझा खड़ा था.

Tuesday, December 8, 2009

जब हम प्यार करते हैं

जब हम प्यार करते हैं
तब यह नहीं कि
आकाश अधिक दयालु हो जाता है
या कि सड़कों पर
अधिक खुशी चलने लगती है
बस यही कि कहीं किसी बच्ची को
अपनी छत से उगता सूरज
और पड़ोस की बछिया देखना
अच्छा लगने लगता है
कहीं कोई भीड़ में बुदबुदाते होठों में
प्रार्थना लिए
एक जनाकीर्ण सड़क
सकुशल पार कर जाता है
कहीं कोई शांत मौन जल
कंकड़ से नही, अपने संगीत से
जगाता बैठा रहता है।
जब हम प्यार करते हैं
तो दुनिया को
छोटे-छोटे अंशों में सिद्ध करते हैं
और सुंदर भी, और समृद्ध भी...
हम वसंत को आसानी से काट देते हैं
और उसे एक ऐसे संयोग में गढ़ देते हैंजो
जो न ऋतुगान होता है न टहनियां
और न कोई स्पष्ट आकारन काव्य
और न फूलों, चिडिय़ों का कोई सिलसिला
हम उसे दुनिया के हाथों में फेंक देते है
और दुनिया जब तक उसे देखे-परखे
हम चल देते है
छिप जाते हैंऋतु में या काव्य में
या टहनियों के आकाश में...
अशोक वाजपेयी