Monday, December 31, 2018

वो कोई बरहमन तो नहीं था फिर भी..


कोई साल कहीं नहीं जाता कोई याद कभी नहीं बीतती. जो बीत जाती होतीं यादें तो दिल में कुछ कसकता सा क्यों रहता. हर्ष के उल्लास के शोर में क्या छुपाना चाहते हैं सब. क्या यह महज कैलेंडर बदलने का शोर है या सचमुच कुछ बदल रहा है. क्या कल के सूरज में कुछ नया होगा, क्या हर दिन के सूरज में कुछ नया नहीं होता. नया क्या होता है आखिर. मुझे नहीं मालूम. ये सब बहुत बड़े बड़े सवाल लगते हैं मुझे. मैं सवालों मेंं उलझना नहीं चाहती, बस जीना चाहती हूँ. पिछले बरस कुछ यूँ चाहा था अपना नए कैलेंडर वाला बरस...

खुद के लिए लम्हे चुराउंगी
बनूँगी थोड़ी और मुंहफट
जिंदगी को गले लगाकर खिलखिलाऊँगी
करुँगी खूब सारी यात्राएं
दोस्तों से और करुँगी झगड़े
बिखरे हुए घर को मुंह चिढ़ाऊंगी
नींदों से ख्वाब चुरा लूंगी
समंदर किनारे दौड़ लगाउंगी
नदी की बीच में धार में खड़े होकर
पुकारूंगी तुम्हारा नाम
इस बरस... 

और सचमुच किया यही सब. मुन्नार की यात्रा से शुरू हुआ नए कैलेंडर का सफर तो कोच्चि के समन्दर से होते हुए गोवा के समन्दर तक ले गया. दोस्ती ने नये मुकाम हासिल किये, खोलीं कुछ और गिरहें जो अवचेतन में पैबस्त थीं कहीं. बरसों एक टुकड़ा नींद को तरसी आँखों पर नींद की रहमत हुई. कुछ दोस्तों के पास न पहुँच पाने का अफ़सोस है कि उन्हें मेरी जरूरत थी, या मुझे होना था उनके मुश्किल वक़्त में. फिर भी मन रहा उन दोस्तों के पास ही. इस बार के कैलेंडर पर कोई इंतजार नहीं लिख रही, सिर्फ बहार लिख रही हूँ. कुछ जंगल, कुछ नदियाँ लिख रही हूँ, ढेर सारा प्यार थोड़ी सी तकरार लिख रही हूँ. बहुत सारी नींद लिख रही हूँ बस कि अब मुझे नींद आने भी लगी है. जिसने कहा था कि ये साल अच्छा है वो बरहमन तो नहीं था...लेकिन यकीनन अच्छा था ये साल...

Thursday, December 27, 2018

'ओ अच्छी लड़कियो' की गोवा यात्रा


शुभा मुद्गल जी की आवाज में ढला 'अली मोरे अंगना' सुनती थी तो रिपीट मोड में सुनती ही जाती थी. उनकी आवाज में ढला हर गीत जो एक बार साथ हुआ, तो उससे कभी साथ छूटा ही नहीं. रेनकोट का गीत 'पिया तोरा कैसा अभिमान' तो दिल में शुभा जी की तरह ही बेहद ख़ास जगह रखता है. वही शुभा मुद्गल अगर कहें कि, 'प्रतिभा जी, आपकी कविता को संगीत में ढालना चाहती हूँ' तो मेरी क्या स्थिति होगी, समझा जा सकता है.

उन्होंने और अनीश प्रधान जी ने 'ओ अच्छी लड़कियों' को गोवा में होने वाले Serendipity Arts Festival 2018 के लिए चुना. 15 से 22 दिसम्बर तक आठ दिन तक चलने वाले इस फेस्टिवल में सातवां दिन हिंदी कविताओं के नाम रहा जिन्हें संगीतबद्ध किया अनीश प्रधान और शुभा मुद्गल जी ने, और जिन्हें अपनी खूबसूरत, दिलकश आवाज से सजाया ओमकार पाटिल और प्रियंका बर्वे ने. कविताओं के इस गुच्छे को Maverick Playlist का नाम मिला जिसमें केदारनाथ सिंह, नज़ीर अकबराबादी, मीराबाई, पल्टूदास, शुभा मुद्गल और प्रतिभा कटियार यानी मेरी कविता को चुना गया.

मेरे लिए गोवा की यह यात्रा असल में कविता यात्रा ही थी, इस जिज्ञासा के साथ कि किस तरह ढलेगी यह कविता संगीत में और कैसे कोई गायेगा इसे. शुभा जी और अनीश जी ने बहुत मोहब्बत से तमाम कविताओं को संगीत दिया और ओमकार तथा प्रियंका ने उतनी ही शिद्दत और मोहब्बत से इन्हें आवाज दी.

वह एक जादुई शाम थी जब शुभा जी से जी भर के गले लगते हुए मेरी आँखें सुख से छलक पड़ी थीं. पूरे कार्यक्रम में वो मेरे करीब बैठी थीं और पूछती जा रही थीं कि ठीक बना है न संगीत? उन्होंने मुझे बैकस्टेज ही बता दिया था कि उन्हें यह कविता इतनी पसंद है कि इसी से कार्यक्रम का समापन किया जायेगा.

शुभा जी के करीब बैठकर कविताओं को सुरों में ढलते देखने की यह जादुई शाम थी. सभी कवितायें संगीत में रच-बसकर और खूबसूरत हो उठी थीं. मैं जैसे किसी जादुई लम्हे में थी. ओमकार बेहद शानदार कलाकार हैं. उनकी जिन्दादिली और मीठी आवाज ने कविता को जिस अपनेपन से गया उसे सुनकर ही महसूस किया जा सकता है.

शुभा जी, अनीश जी, आपसे मिला मान और स्नेह कीमती पूँजी हैं, जिसे उम्र भर संभाल कर रखूंगी. ओमकार, तुम्हारी आवाज बस गयी है दिल में. तुम जादूगर हो सच में. दोस्त अजय गर्ग, अगर आप साथ न होते तो इन लम्हों को मैं किस तरह अकेले समेट पाती भला! प्यारी प्रेरणा, तुम्हारे बगैर कुछ भी कहाँ संभव था...!

यह प्यार बना रहे...संगीत, कला, साहित्य और लहरों का साथ बना रहे!
दोस्त बने रहें!

Friday, December 14, 2018

कहानी- इंतजार के पार


- प्रतिभा कटियार

बादल बरसते-बरसते थक चुके थे. थककर ऊंघने लगे थे. हालाँकि उन्होंने बरसना बंद नहीं किया था लेकिन बरसते-बरसते जो थकान आ गयी थी उससे उनकी गति थोड़ी-धीमी हो गयी थी. थके हुए बादलों को देखना भला लग रहा था. घर में दूध था, आटा था, नमक था इसलिए बरसना बहुत अखर नहीं रहा था. चाय बनने का इंतजाम हो, नमक और आटा हो तो घर से बाहर जाए बिना काफी दिन मजे में निकाले जा सकते हैं. दूर्वा ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराई. वो इन बादलों के रुकने की प्रतीक्षा में नहीं है, इनके जी भरके बरस लेने का इंतजार में है. बरसने की इच्छा को बचाकर रखना बहुत मुश्किल होता है. बरसने को न मिले जिन बारिशों को वो फिर बाढ़ बन सकती हैं, तबाही ला सकती हैं. बेहतर है कि उन्हें वक्त पर बरस लेने दिया जाय. हाथ बढ़ाया तो बारिश उँगलियों को छूते हुए कमरे तक चली आई. कुहनी से टपकती हुई बूँदें फर्श भिगोने लगी. दूर्वा ने महसूस किया अब उसके जीवन में किसी भी तरह की कोई प्रतीक्षा नहीं है न भीतर, न बाहर.

यूँ प्रतीक्षाएं हमेशा रही हैं उसके जीवन में. ठीक उसी तरह जैसे वो हर किसी के जीवन में रहती हैं. कुछ प्रतिक्षाएं पूरी हो जाती हैं, कुछ बूढी हो जाती हैं, उनके चेहरे पर हाथों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, उनकी आवाज कांपने लगती है. कुछ प्रतीक्षायें असमय मौत की शिकार हो जाती हैं जिनकी विदाई कुछ दिन के आंसुओं और उदासी से हो जाती है. कुछ प्रतीक्षाएं अजीब होती हैं. वो बार-बार भ्रम देती हैं कि वो अब नहीं हैं, लेकिन वो रहती हैं शाश्वत. और कुछ की आपस में अदला-बदली होती रहती है. जैसे कुछ देर पहले चाय पीने की इच्छा का इस वक़्त बारिश में भीग लेने की इच्छा से अदला-बदली होना.

बारिश में भीगने की इच्छा को सूखे रेनकोट की तरह तह करके मन के भीतर रखते हुए दूर्वा चाय पीने की इच्छा के साथ चल पड़ी. चाय के खौलते पानी में उसने चाय की पत्ती के दरदरे दानों के साथ अतीत के कुछ लम्हे भी उबलते देखे. सनी के बिना जी नहीं सकेगी लगता था, उसे लगता था कि एक रोज सनी समझेगा इस बात को. सनी समझेगा एक दिन इस प्रतीक्षा में कितने बरस बीत गए. एक दिन यह प्रतीक्षा इस प्रतीक्षा से बदल गयी कि असल में सनी को नहीं उसे खुद को समझना है. और एक दिन दूर्वा सनी की प्रतीक्षा से बाहर निकल आई.

चाय के बनते-बनते बारिश थम सी गयी और दूर्वा चाय लेकर बाहर बालकनी में आ गयी. पत्तियों पर अटकी बूँदें जैसे मन के किसी कोने पर अटका कोई इंतजार हो, खूबसूरत, दिलकश और किसी भी वक़्त टप्प से टपक जाने को व्याकुल.

13 बरस हो गये सनी से अलग हुए. हालांकि १३ सेकेण्ड भी उसकी याद मन से दूर गयी हो ऐसा उसे याद नहीं. आज सनी शहर में है. और वो उससे मिलने आना चाहता है. दूर्वा समझ नहीं पा रही कि उसे कैसा महसूस हो रहा है. वो चाय की एक-एक बूँद को भीतर जाते महसूस कर पा रही है, उसके स्वाद को जबान पर महसूस कर पा रही है लेकिन सनी के 13 साल बाद मिलने आने को महसूस नहीं कर पा रही.

कुछ ही देर को रुकी थी बारिश फिर वापस आ गयी. दूर्वा कमरे में लौटी तो मोबाईल के स्क्रीन पर मैसेज था सनी का. घर का पता पूछ रहा था वो. दूर्वा देर तक मोबाईल के उस मैसेज को देखती रही. जवाब दे न दे, पता भेजे न भेजे तय नहीं कर पा रही थी. फिर उसने पता भेज दिया और चार तकियों के गड्डे पर सर रखकर लेट गयी.

जब सनी के आने के दिन होते थे तो कैसे झूम-झूम कर घर सजाती थी वो. उसकी पसंद की खाने की चीज़ें, बेडकवर, किताबें. गिटार घर में सिर्फ इसलिए है इतने सालों से कि किसी रोज सनी ने कहा था कि उसकी इच्छा है कि उसका एक कमरा हो जिसमें गिटार हो. वो यह बात कहकर भूल गया लेकिन दूर्वा उस बात को उठा लायी. घर में गिटार रहता है तो लगता है सनी भी रहता है थोड़ा सा.

गिटार अब भी रखा है ड्राइंग रूम में हालाँकि अब वह सिर्फ एक सामान की तरह ही है बस. कई बार दिल चाहा कि हटा दें, आखिर उसे कोई बजाने वाला तो हो, म्यूजिक स्कूल है पास में वहीँ रखवा दे लेकिन जाने क्यों दूर्वा गिटार हटा नहीं पाई.

आज जब सनी आ रहा है तो घर एकदम बिखरा पड़ा है, बारिश के चलते न खाना बनाने सावित्री आ रही है, न मोहन भैया जो सफाई कर जाते थे और न ही घर में कुछ सामान है. दूर्वा को थोड़ी सी चिंता हुई, वो उठी सफाई करने को फिर न जाने क्या सोचकर वापस लेट गयी.

मौसम खूब ठंडा हो रहा है, दूर्वा ने शॉल लपेटते हुए चाय का पानी चढ़ा दिया. शायद सनी का इंतजार ही था यह पानी चढ़ाना. लेकिन यह इंतजार तो बीत गया था, फिर भी बचा रह गया क्या?

फोन घरघराया तो दूर्वा चौंकी. सनी ही था. ‘हैलो, मनु! ये माधव जनरल स्टोर से किधर को मुड़ना है, राइट या लेफ्ट?’

‘लेफ्ट, वहां से सीधा लेना फिर एक लेफ्ट उसके बाद एक राईट. बस.’

‘ओके’ कहकर सनी ने फोन काट दिया.
‘कितना लेफ्ट राइट करवा रही हो. एक ठीक सी जगह घर नहीं लिया जाता तुमसे. ऊपर से इतनी बारिश. दिमाग खराब करके रखा है.’ दूर्वा के अतीत के पन्ने खुलने लगे थे जहाँ से सनी कुछ इस तरह बडबडा रहा था.
बारिश और तेज़ होती जा रही थी. कुछ ही देर में सनी घर में था.

‘काफी बारिश हो रही है न?’ सनी ने जूते बाहर उतारते हुए कहा.
‘हाँ’ कहकर दूर्वा किचन में चली गयी पहले से चढ़ाये पानी में चीनी अदरक डालने.
लौटी तो सनी अख़बार पलट रहा था.

‘तुम क्या सारी जिन्दगी अख़बार पढ़ते हुए बिता सकते हो? इतने सालों बाद आये हो और अब भी अख़बार?’ पहले का वक़्त होता तो मुलाकात की शुरुआत इसी के साथ झगड़े से होती. लेकिन दूर्वा ने कुछ नहीं कहा.
‘एक मीटिंग थी यहाँ? उसी में आया था.’ सनी ने कहा.
दूर्वा चुप रही.
कमरे में देर तक चुप छाई रही. यह चुप इतनी बड़ी होती जा रही थी कि दूर्वा को घबराहट होने लगी. वो चाय लेने को उठी तो सनी भी उठ गया.
‘तुम बैठो, मैं ले आता हूँ चाय’ यह अतीत के पन्नों में गुम हो चुका सनी ही था.
‘कप कहाँ हैं, छन्नी कहाँ है?’ सनी ने किचन से ही ऊंची आवाज में पूछा. दूर्वा का जी चाहा जोर से चिल्लाकर बोले 13 साल बाद लौटे हो तो बैठो न मेहमान की तरह, क्यों गए किचन में. उसके भीतर रुदन उखड़ने लगा था. वो गयी और कप और छन्नी निकालकर रख आई.

‘बारिश की वजह से फ्लाईट काफी लेट हैं.’ सनी शायद चुप वापस न आ जाय इसलिए बोल रहा था.
‘मनु, ये वाला घर कब लिया तुमने?’
4 साल हुए. दूर्वा ने जवाब दिया.
मनु, यह नाम कितने अरसे बाद उसने यह नाम सुना अपने लिए. मनु यह नाम सनी ने ही दिया उसे. दूर्वा नाम उसे पसंद नहीं था. कहता था ‘यह कैसा नाम है, तुम घास हो क्या?’
दूर्वा कहती ‘हाँ, जंगली घास, बिना परवरिश के बढती जाती है, जितना कुचलो उतनी और बढती है.’
क्यों कुचले कोई, उन्हह. यह सब बकवास है. मुझे यह नाम पसंद नहीं. तुम मनु हो मेरी, मेरे मन की साथी. मनु. मनु नाम से उसे कोई नहीं बुलाता.
बाहर संवाद कम थे, भीतर संवादों का कोहराम मचा था.
‘मीटिंग अभी है या ख़त्म हो गयी ?’ दूर्वा ने औपचारिकता वश पूछ लिया.
‘खत्म हो गयी.’ सनी ने जवाब दिया.
‘तुम कैसी हो?’ अभी शायद पूछेगा सनी दूर्वा को बार-बार लग रहा था. लेकिन सनी ने नहीं पूछा.
‘चाय मीठी पीने लगी हो तुम?’
नहीं, तुम्हारी वजह से चीनी ज्यादा डाली थी, उसने कहना चाहा लेकिन कहा ‘हाँ’.
‘घर में कुछ खाने को नहीं है, बारिश के कारण निकलना नहीं हो पाता न? ड्राइवर भी छुट्टी पर है.’ दूर्वा ने कहा.
‘अरे तो बता देती न, कुछ लेते आता.’
‘मेरे भर का तो है’ दूर्वा ने अनमने मन से कहा.
‘अरे तो मैं अपने लिए ही ले आता. सनी ने माहौल को हल्का करते हुए कहा.’
‘मनु, तुमने अभी तक गाड़ी चलानी नहीं सीखी?’
‘कितना कुछ तो सीखा है. गाड़ी चलानी ही जरूरी है क्या?’ दूर्वा ने कहना चाहा लेकिन कहा ‘नहीं. मोहन भैया की वजह से कोई दिक्कत नहीं होती. वो आ जाते हैं जब जरूरत होती है’
‘कब तक किसी पर डिपेंड होती रहोगी?’ सनी ने कहा.
‘पता नहीं’

‘तुम कुछ खाओगे?’ दूर्वा ने बात बदलते हुए पूछा.
‘हाँ, लेकिन तुम्हारे घर में तो कुछ है नहीं, कुछ ऑर्डर करें क्या?’ सनी ने कहा.
‘इस बारिश में ऑर्डर भी क्या होगा, कौन आएगा. पिज़्ज़ा मुझे पसंद नहीं तुम जानती हो.’
‘नहीं मैं कुछ नहीं जानती.’ दूर्वा ने दृढ़ता से कहा.
घर में आटा है, आलू, प्याज है. चावल और नमक है.
‘अरे, इतने में तो पार्टी हो जाएगी. प्याज के पराठे बनायें?’ सनी, ने कहा.
दूर्वा बिना कुछ कहे किचन में गयी. पीछे से सनी भी आ गया और प्याज काटने के लिए चाकू तलाशने लगा. दूर्वा आटा माड़ने चली तो सनी ने उसे रोक दिया, मैं करूँगा ये. मुझे पता है तुम्हे आटा माड़ना पसंद नहीं.
दूर्वा चुपचाप बाहर आ गयी. सनी प्याज काटकर आटा माड़ने लगा.
अतीत के पन्नों से फिर कोई स्मृति निकलकर बाहर आ गयी छिटककर. जब वो किचन में होती थी और वो यूँ आ जाया करता था किचन में कितना मुश्किल हो जाता था खाना बन पाना. पीछे खड़े होकर वो उसे बीच-बीच में चूमता रहता था और मसाले अक्सर जल जाया करते थे.
तेज़ हवा का झोंका भीतर आया तो सिहरन से वर्तमान में लौटी दूर्वा. सनी किचन में कुछ गुनगुना रहा था. उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि वो तेरह बरसों का फासला पार करके आया है. अतीत की कोई सलवट नहीं है उसकी आमद में. जबकि दूर्वा बार-बार अतीत में हिचकोले खाने लग रही है.

ये हमेशा से खुद को छुपा ले जाने में माहिर रहा. इस तरह की सहजता से ये क्या बताना चाहता है कि कुछ भी नहीं बदला है? सब पहले जैसा ही है? कि यह मुझे अब भी मुझे पहले जैसे ही प्यार करता है? लेकिन ऐसा तो इसने कभी कहा नहीं था. यह हमेशा कहा कि मैं इसका सर खाती रहती हूँ. तो अब यह मेरा सर क्यों खा रहा है? क्यों आया है? दूर्वा के भीतर घमासान छिड़ा हुआ था.

‘मनु, पराठे के साथ फिर से चाय पियोगी न?’ सनी ने किचन से ही आवाज दी.
‘हाँ’ दूर्वा ने आवाज में आई नमी को भरसक रोकते हुए कहा लेकिन वो भीगापन सनी तक पहुँच गया था. वो चाय और पराठे लेकर लौटा तो दूर्वा किचन में यह कहकर चली गयी कि शायद अचार रखा होगा. और अचार मिल गया.
‘मुझे नहीं चाहिए होता है अचार, तुम्हें पता तो है.’ चाय पराठा बेस्ट कॉम्बिनेशन.
दूर्वा बाहर देखने लगी. चाय उतनी ही बुरी बनी थी जितनी पहले सनी बनाया करता था. हर सिप अझेल हो रही थी.
यह आदमी हमेशा सिर्फ अपने बारे में क्यों सोचता है. इसे पता है इतने दूध वाली और इतनी मीठी चाय मुझे पसंद नहीं फिर भी. दूर्वा को गुस्सा आ रहा था.
सनी शायद काफी भूखा था, 4 पराठे चट कर गया.
‘होटल वाले खाने को नहीं देते क्या?’ दूर्वा ने व्यंग्य में पूछा.
सनी ने दूर्वा की प्लेट से आधा पराठा लेते हुए कहा, ‘देते हैं लेकिन प्याज के पराठे नहीं देते. और मैं बनाता भी तो अच्छे हूँ.’
फिर वही सेल्फ औब्सेसेड. हुंह. दूर्वा का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.
‘तुमको क्या लगता है मनु, 2019 में किस करवट बैठेगा ऊँट?’
‘अरे मुझे क्या पता? क्या तुम मुझसे अबकी बार किसकी सरकार का एग्जिट पोल लेने आये हो?’ दूर्वा मन ही मन खिसिया रही थी. लेकिन मन को सामने क्यों लाना, सनी अब उसके लिए सिर्फ एक मेहमान ही तो है. सिर्फ औपचारिक संवाद ही होने चाहिए सो उसने कह दिया.
‘लगता तो है, कि लौटेगी यही सरकार’
‘यह बहुत बुरा होगा मनु, बुरा तो हो ही रहा है वैसे लेकिन...’
‘सरकार जो बुरा कर रही है उसकी चिंता है, खुद जो मेरे साथ बुरा किया उसके बारे में कोई बात नहीं.’ मनु लगातार भीतर के संवाद में थी.
मैं तो औपचारिक संवाद में हूँ लेकिन यह कहाँ से मेहमान लग रहा है. वैसे ही चपर-चपर करके खा रहा है, उँगलियाँ चाट रहा है, किचन में कब्जा जमा लिया है. इसे देख बिलकुल नहीं लग रहा कि 13 साल बाद लौटा है.

हालाँकि दूर्वा ने महसूस किया कि 13 बरसों का सफर सनी पर भी साफ़ दिख रहा है. बालों की सफेदी काफी बढ़ गयी है. दाढ़ी भी खिचड़ी सफेद हो चुकी है. चश्मा लग गया है. रंग वैसे ही मरीले से पहनता है अब भी वही ग्रे कलर आज भी पहना हुआ है जिसके कारण कितनी बार झगड़ चुकी है दूर्वा. गिरा हुआ ग्रे क्यों पहनते हो तुम? लेकिन मजाल है कि सनी ने पहनना छोड़ा हो. देखो तो इतने बरस बाद मिलने आया है तो भी वही ग्रे. जैसे चिढाने को करता हो ये सब. हालाँकि वो कहा करता था कि किसी के लिए खुद को बदलना अस्थायी है, बदलाव को भीतर से स्व्त्फूर्त आना चाहिए. मुझे जब तक खुद ग्रे से कोई दिक्कत नहीं होगी मैं तो पहनूंगा. हाँ, हो सकता है तुम्हें यह बात न पसंद आये लेकिन यह तुम्हारी दिक्कत है.

वक़्त बीत गया लेकिन चीज़ें बदली नहीं. सनी अब भी ग्रे में अटका है, हालाँकि उस ग्रे की उदासी दूर्वा के जीवन में चली आई और शायद चमक सनी के जीवन में रह गयी. ऐसा दूर्वा को लगता रहा.

‘यार, सबसे घटिया राजनीति होती है भावुकता की राजनीति. लोगों के इमोशन्स पर कब्जा. पब्लिक साली अलग पागल है, मने रोने लगते हैं लोग पागलपन में. लेकिन पब्लिक का यह चरित्र भी तो इन्हीं सालों ने गढ़ा है. सोचो मत, जैसा हम कहते हैं वैसा मानो, जब हम कहें जिस बात कर कहें उस बात पर भावुक हो. जो हम दिखाएँ वही देखो. तो भाई वही देख रही पब्लिक.’ दूर्वा के मन के भीतर चलती उथल-पुथल को सुने बिना सनी बोले जा रहा था, हालाँकि दूर्वा को लग रहा था कि वो अपने भीतर की आवाजों को अनसुना करने के लिए बाहर की आवाजों का सहारा हमेशा से लेता रहा है. जब पहली बार आया था, मिलने तब भी दुनिया भर की राजनीती का गणित समझाता रहा था. हालाँकि न वो सुन रहा था जो वो कह रहा था, न दूर्वा सुन रही थी. वो दोनों वही सुन रहे थे जो कहा नहीं जा रहा था.

‘कितनी अजीब बात है न मनु, किसी की थाली में दो रोटी थी. उसकी भूख तीन रोटी की थी. सरकार ने कहा तुम अपनी दो रोटी मुझे दो मैं चार करके वापस दूंगा. फिर उसने कहा, तुम्हारी रोटी विपक्ष खा गया, पिछली सरकार खा गयी लेकिन फ़िक्र न करो मैं तुमको तुम्हारी रोटी दूंगा. और सरकार ने लम्बे इंतजार के बाद एक रोटी दी.’ गरीब ने कहा, सरकार की जय, सरकार ने हमें रोटी दी. भूख से मरने से बचा लिया. वो भूल गए कि रोटी दी नहीं है बल्कि छीनी है. जो तुम्हें मिली वो तुम्हारी ही रोटी थी. जितनी मिली वो अपर्याप्त है. कोई नहीं सुनेगा यह बात. जो यह बोलेगा वो देशद्रोही कहलायेगा और राजा वोट कमाएगा.

अपनी जमीन, अपनी जिन्दगी, अपने खेतों की फसल के सही दामों के लिए तरस रहे हैं लोग और उन्हीं को वोट दे रहे हैं, अपने ही घर में असुरक्षित हैं लेकिन जिससे सुरक्षा को खतरा है उसी से पनाह मांग रहे हैं. यह अफीम आज नहीं चटाई गई, बरसों से यही हो रहा है.’

सनी, पराठे खाकर एकदम ऊर्जावान हो गया था और उसके भीतर का एक्टिविस्ट सक्रिय हो उठा था.
दूर्वा ने छेड़ दिया, ‘भरे पेट की बात खाली पेट की बात से अलग होती है न?’
सनी, मुस्कुरा दिया. ‘सही कह रही हो’
‘आखिर हम भी तो तमाम लग्जरी जीते हुए सिर्फ बातें ही कर रहे हैं. क्या करें समझ नहीं आता.’ सनी ने प्लेट उठाते हुए कहा.
‘तुमने खाया नहीं पराठा ?’ सनी ने दूर्वा की प्लेट देखते हुए कहा.
‘मैं देखना चाह रही थी कि भूखे पेट इन्सान को भरे पेट इन्सान की बात कैसी लगती है.’ दूर्वा ने कहा.
इस बात के जितने भी अर्थ थे सब सनी ने सुने और वो चुपचाप किचन में चला गया. प्लेट धोने की आवाज सुनकर दूर्वा किचन में गयी, ‘अब, प्लेट तो रहने ही दो धोने को.’ उसने सनी का हाथ पकड़ लिया.

बरसों बाद का स्पर्श शायद दोनों को सहन नही हुआ. सनी ने तुरंत प्लेट छोड़ दी और बाहर आ गया, दूर्वा की पलकें नम हो गयीं.
‘तुम लोग यार कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लो फेमिनिज्म की लेकिन अब भी कामों को जेंडर लेंस से देखना छोड़ नहीं पाई पूरी तरह.’ सनी ने भीतर की सनसनाहट को भीतर धकेलते हुए कहा.
‘ऐसा कुछ नहीं है.’ दूर्वा ने कहा.
‘तुम अब भी चाय बनाना नहीं सीखे’ दूर्वा ने बात बदलने के लिहाज से अपने कप में छोड़ी हुई चाय को देखते हुए कहा.
‘कुछ भी कहाँ बदलता है मनु’ सनी ने कहा. यह कहते हुए उसका स्वर इतना स्थिर था कि दूर्वा ठिठक गयी. सनी बाहर देखने लगा जहाँ एक चिड़िया ने बारिश से बचने की तमाम कोशिशों के बाद आखिर भीगना ही चुन लिया था. सनी का दिल चाहा एक छाता लेकर जाए और चिड़िया के ऊपर लगा दे. जब मनु को जीवन की आँधियों और बारिशों से बचने के लिए प्रेम का छतरी चाहिए था, तब तो वह नहीं था. यह सोचकर सनी की आंखें गीली हो गयीं. उसे लगा वो भीगती चिड़िया मनु है और सनी जिसे छतरी होना चाहिए था वो बारिश हो गया है, वही वजह है उसके इस तरह भीगने की.
‘अंकिता कैसी है?’ दूर्वा ने पूछा.
‘अच्छी है, खूब शैतान. इतना बोलती है क्या बताऊँ.’ सनी की आवाज में खनक आ गयी थी.
दूर्वा उस चमक के भीतर उदास होने लगी.
‘और रश्मि?’ दूर्वा ने अपने पाँव के नाखून पर नज़रें टिकाये हुए पूछा.
‘वो बहुत अच्छी है. अपना काम शुरू किया है बुटीक का. अच्छा चल रहा है. खुश रहती है.’ सनी ने जैसे रटी हुई स्पीच उगल दी हो और उसके बाद राहत की सांस ली हो.
‘और तुम?’ यह दूर्वा के पास सनी के लिए अंतिम प्रश्न था.
‘तुम्हारे सामने हूँ हट्टा-कट्टा. मरा नहीं हूँ तुम्हारे बिना. हा हा हा’ सनी ने गंभीरता को सहजता में बदलने की कोशिश की.
‘सामने होने से कुछ नहीं होता. होना और सामने होना दो अलग बाते हैं.’ दूर्वा धीरे से बुदुदाई.

‘तुम कैसी हो?’ सनी ने पूछा.
‘तुम्हारे सामने हूँ. हट्टी कट्टी मरी नहीं हूँ तुम्हारे बिना.’ दूर्वा ने उसी का जवाब कॉपी पेस्ट कर दिया.’
सनी उदास हो गया.
‘हाँ, क्यों मरना यार. जब लोग भूख से मर रहे हों ऐसे में प्यार में मरने की बात करना लग्जरी ही तो है. हालाँकि न मरना जीना ही है यह कहना मुश्किल है. ‘
बादलों की गडगडाहट तेज़ होती जा रही थी. शायद बिजली गिरी है कहीं. बारिश लगातार तेज़ होती जा रही थी.
‘गाड़ी ठीक है?’ सनी ने पूछा.
‘हाँ. क्यों?’ जाना था कहीं काम से. कुछ देर को. चाबी दोगी?’
दूर्वा ने गाड़ी की चाबी टेबल पर रख दी.
दो घंटे हो गए हैं सनी ने अब तक उसे छुआ तक नहीं. पहले किस तरह बेसब्र हुआ करता था. चाय रखे रखे ठंडी हो जाती थी. चुम्बनों की बौछार होती थी उस पर. कितना नशा था उस स्पर्श का. उसकी बेसब्री किस कदर मोहती थी दूर्वा को. लेकिन 13 बरस का फासला सब बहा ले गया.
‘मैं आता हूँ कुछ देर में? कुछ लाना है? दवाई वगैरह?’
‘नहीं सब है मेरे पास.’ कहते हुए दूर्वा ने सुना कि कुछ भी तो नहीं है मेरे पास क्या-क्या ला सकोगे?
सनी चला गया.

दूर्वा अतीत और वर्तमान के बीच हिचकोले खाती रही. कोई वजह नहीं थी उन दोनों के बीच इस दूरी की. कोई भी वजह नहीं थी फिर भी फासले उगते गये. मनु, कितने बरसों बाद इस नाम से पुकारा जाना अच्छा लग रहा था दूर्वा को. शायद इस तरह का अच्छा लगने का अभ्यास छूट गया था उसका.
दूर्वा अब ज्यादा खामोश हो गयी है. हालाँकि उसके भीतर काफी शोर भर गया है. सनी अब खूब बोलने लगा है लेकिन शायद वो भीतर कहीं मौन हो गया है. बारिश इन दोनों की धुन को समझती है.

सनी लौटा तो उसके दोनों हाथों में सामान था. सब्जियां, फल, राशन का ज़रूरी सामान, मैगी दूध वगैरह.
दूर्वा यह देख चौंककर बोली , ‘यह सब क्या है? इसकी कोई कोई जरूरत नहीं थी.’
‘जो जरूरत है, वो मैं पूरी कहाँ कर पाता हूँ मनु,’ सनी की आवाज़ एकदम भीग चुकी थीं. भीगी पलकें छुपाने के लिए उसने चेहरा घुमा लिया.
बाहर बारिश की धुन और तेज़ हो गयी थी, लॉन में लगी घास बारिश में डूब चुकी थी...

(फेमिना 2018 के नवम्बर अंक में प्रकाशित)




Thursday, December 13, 2018

अभिनय-अंतिम किश्त


दिन भर उज्ज्वला अतिरिक्त उत्साह से भरी रही. जैसे उसे उसके पंख मिल गए हों. कितना सुखी और हल्का महसूस कर रही थी. जब संभावनाओं पर हल्की सी पकड़ कासी, तब उज्ज्वला को महसूस हुआ कि क्या था जिसकी खोज निरंतर जारी थी भीतर. सब कुछ होते हुए भी क्यों अनजानी सी असंतुष्टि घेरे रहती थी उसे. थोड़ी सी नर्वस भी हो रही थी. जाने कर भी पाएगी या नहीं.
'सुषमा तुझे यकीन है मैं कर पाऊंगी.'
सुषमा मुस्कुरा दी. 'हाँ, जरूर कर पाओगी. लेकिन पहले प्रणय से तो पूछ लो. क्या पता उसे पसंद न हो तुम्हारा अभिनय करना.'
'तुम प्रणय की फ़िक्र न करो. प्रणय मुझे खूब समझते हैं. आज तक कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया. जो चाहती हूँ करती हूँ.' उज्ज्वला की आवाज में आत्मविश्वास था.
'ठीक है, तो मेरे साथ चलने की तैयारी कर लो.'
'पता है सुषमा, मुझे बहुत रोमांच हो रहा है यह सब सोचकर. लग रहा है मैं खुल रही हूँ. अब तक कैद थी जैसे कहीं.'
'मैं समझ सकती हूँ उज्ज्वला. खुद पर भरोसा करना और अपनी तरह से जीना गर आ जाए तो बहुत ख़ुशी होती है.'
लेकिन न जाने क्यों सुषमा को उज्ज्वला की ख़ुशी से डर लग रहा था. सुषमा के अनुभव का कैनवास ज्यादा बड़ा है. और उसके वही अनुभव उसे डरा रहे थे. अब तक की जिन सहमतियों की बातें सोचकर उज्ज्वला इतनी खुश है उनमें से एक भी उसके लिए कहाँ थी. घर के पर्दे अपनी पसंद के लगाना और अपनी पसंद के रास्तों पर जीवन को ले जाना बिलकुल अलग बाते हैं. फिर भी सुषमा अपने आप को सांत्वना दे रही थी. हो सकता है प्रणय की सोच थोड़ी फर्क हो. हो सकता है सचमुच वह उज्ज्वला के अरमानों की कद्र करता हो. वह प्रणय को जानती ही कितना है. यही सब सोचते हुए ख़ामोशी के साथ उज्ज्वला की खुशियों में शामिल रही सुषमा.

उज्ज्वला प्रणय से पुनः अभिनय शुरू करने के बारे में बात करना चाहती थी. उसे पूरा यकीन था  कि प्रणय बहुत खुश होगा यह सुनकर. वह प्रणय को अपनी यह इच्छा बताकर चौंका देना चाहती थी.

एक रोज प्रणय ने उसके  चेहरे पर छाए उत्साह और आत्मविश्वास को लेकर जब टोका तो उज्ज्वला को लगा यही मौका है प्रणय को चौंकाने का. मुस्कुराते हुए उज्ज्वला ने कहा, 'प्रणय तुम्हें, एक अच्छी खबर बताती हूँ. तुम तो जानते हो कॉलेज टाइम में मुझे अभिनय का कितना शौक था. सुषमा से बातें करते हुए मेरे भीतर दबा पड़ा अभिनय का बीज फिर से पल्लवित होना चाहता है. मैं दोबारा अभिनय शुरू करना चाहती हूँ. सुषमा मेरी मदद करेगी. वैसे भी दिन भर घर में खाली रहती हूँ. मैं बहुत एक्साइटेड हूँ प्रणय, लेकिन डर भी लग रहा है. जाने कैसे होगा यह सब ? उत्साह उज्ज्वला की आवाज से छलका जा रहा था, प्रणय के किसी भी जवाब या प्रतिक्रिया का इंतजार किये बगैर वह बोलती रही.

'जरा सोचो प्रणय, लोग मुझे मेरे नाम से पहचानेंगे, मेरा काम, मेरी क्षमता और भी निखरेगी. सब कुछ कितना अच्छा होगा. उन दिनों तो लगता था कि अभिनय तो जीवन है. इसके बगैर जी ही नहीं पाऊंगी. अब इतने वर्षों बाद फिर से मंच पर जाने की सोचकर ही अच्छा लग रहा है. सुषमा कह रही थी कि वो मुझे किसी सीरियल में भी रोल दिलवाएगी. पता नहीं कर भी पाऊंगी या नहीं.'

उज्ज्वला बोले जा रही थी. आखिर प्रणय ने ही उसके अतिरेक को लगाम लगाते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, 'तो अब आप सुपर स्टार बनना चाहती हैं. घर घर स्क्रीन पर आपका चेहरा चमकेगा. लोग आपकी तारीफ करेंगे. भई, हम आपकी तारीफ करें, आपको पसंद करें इससे भला संतुष्टि कैसे हो सकती है?'
'क्या बात कर रहे हो प्रणय. मैं सीरियस हूँ और तुम्हें मजाक सूझ रहा है.' उज्ज्वला के स्वर में थोड़ी सी नाराजगी आ मिली थी.
'उज्ज्वला, अच्छा है मैं तुम्हारी बात को मजाक में ले रहा हूँ वरना तो इस बात पर या तो क्रोध आ सकता है या रोना.'
'क्यों भला?'उज्ज्वला कुछ अप्रत्याशित सुनकर चौंक सी गयी थी.
उज्ज्वला देखो, हमारा छोटा सा परिवार है, बच्चे हैं. हम खुश हैं. तुम्हें क्या जरूरी है, यहाँ-वहां धक्के खाने की, काम करने की.'
'क्या तुम संतुष्ट नहीं हो अपने परिवार से, मुझसे?' प्रणय ने उज्ज्वला को भावुकता में बाँधना चाहा.
'बात संतुष्ट होने की नहीं है प्रणय. बात यह है कि मुझे लगता है कि मुझे अभिनय करना चाहिए. मेरा 'मन' होता है  वैसे भी दिन भर खाली रहती हूँ. बच्चे बड़े हो गए हैं, मेरे पास वक़्त है, मैं इस वक़्त को जीना चाहती हूँ. तुम्हारी बात से सहमत हूँ मैं. परिवार से, तुमसे संतुष्ट भी, लेकिन खुद से नहीं शायद. लगता है मेरे भीतर कुछ है जो बाहर आना चाहता है. मुझे समझने की कोशिश करो प्रणय, प्लीज़.'
उज्ज्वला का आग्रह लगतार मनुहार बनता जा रहा था. लेकिन प्रणय का संयम छूट रहा था.
'इस उम्र में तुम्हें यह नाटक नौटंकी का कौन सा भूत चढ़ा है. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है.'
'मैं मानती हूँ प्रणय कि मेरी उम्र काफी हो गयी है लेकिन एक कोशिश करने में क्या बुराई है. वैसे भी अभिनय का उम्र से ज्यादा सरोकार नहीं होता है फिर मैं तो पहले भी खूब एक्टिंग करती रही हूँ.'
'मैं तुम्हे समझा कर थक गया हूँ. तुम अपने सर स यह अभिनय का भूत उतार दो. मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं. आज के बाद इस विषय पर कोई बात नहीं होगी. समझी. सो जाओ अब.'

प्रणय की आवाज में खासी तल्खी घुल गयी थी. वह करवट बदलकर सोने का उपक्रम करने लगा. प्रणय निश्चिन्त सो रहा था. अपनी सारी हसरतों, उत्साह और आत्मविश्वास की किरचें बीनती उज्ज्वला सिसकियों के बीच सोच रही थी कि उसे लगता था कि वो अभिनय करती थी कभी लेकिन अभिनय तो कबसे चल रहा था उसके आस पास.

समाप्त.

Wednesday, December 12, 2018

अभिनय-3


रात के गहराते अँधेरे में बीता वक़्त फिर से चहलकदमी करने लगा लगा. सुषमा के आने से उससे बातें करने से उज्ज्वला बार-बार अतीत में पहुँच जाना चाहती है. आज विकान्त दा का जिक्र उज्ज्वला को छू गया. कितना भरोसा था उन्हें उज्ज्वला पर. उन्हें उम्मीद थी कि उज्ज्वला जरूर नाम रोशन करेगी। 'मैं कुछ नहीं कर सकी विकान्त दा!' धीरे से बुदबुदायी उज्जवला, साथ ही हल्की सी सीत्कारी निकल गयी. प्रणय चौंका।
'उज्जवला ओ उज्ज्वला! तुम ठीक तो हो न ?'
'हाँ, ठीक हूँ,'
'क्या हुआ, क्या सोच रही हो?'
'कुछ नहीं'
बड़ी गुमसुम हो? मैंने तो सोचा था सहेली से मिलकर बड़ी खुश होगी.'
'वो तो मैं हूँ ही'
'और क्या बातें हुईं सुषमा से? प्रणय की आवाज में जिज्ञासाएं छलकने लगी थीं.
'मैंने तो आपसे कभी नहीं पूछा कि आपकी आपके दोस्तों से क्या बातें हुईं?'
'ओफ्फो, चंद घंटों में इतना असर!' प्रणय ने व्यंग्य किया.
'इतना असर  का क्या मतलब है?'
उज्ज्वला आवाज़ की तल्खी को छुपा न सकी.
'अरे तो नाराज क्यों हो रही हो? मत बताओ, मैं तो यूँ ही जानना चाह रहा था बड़े कष्ट सहे उसने.' प्रणय अपनी तमाम उत्सुकता बगैर उज्ज्वला का रिस्पांस पाए ही निकाले जा रहा था. उज्जवला चुप ही रही. सुषमा को तो उसने आदर्श पत्नी होने की कम्प्रोमाइज करने की नसीहतें दे डालीं, लेकिन उसके खुद के भीतर कुछ अन्तर्द्वन्द चलने लगे. सारी गलती सुषमा की ही तो नहीं हो सकती आखिर विपिन को  भी तो उसे समझना चाहिये. अगर वह अभिनय नहीं कर सकती थी तो कम से कम उसे 'प्ले' देखने जाने की छूट तो मिलनी चाहिये. अगर वह बिजनेस पार्टियों में जा सकती है तो विपिन उसके साथ क्यों नहीं प्ले और एक्जीबिशन देखने जा सकता. क्या परिवार की शान्ति औरतों की इच्छाओं की क़ुरबानी की नींव पर ही टिकी है. कितनी खोखली है यह शांति. अचानक उज्ज्वला को लगा यह सब वह क्या सोचने लगी. जिन्दगी भर परिवार, पति बच्चों के सुख में खुद को संतुष्ट मानती रही. तो क्या सचमुच वह संतुष्ट नहीं थी. यह सब उसके भीतर कब और कैसे जमा होता रहा, नहीं जान पायी उज्ज्वला. लेकिन आज सुषमा से मिलकर उसे लगा कि कुछ छूट गया है उससे. कहीं कोई कसक है. यही सब सोचते-सोचते उज्ज्वला की आँख लग गयी.
अगली सुबह रात के विचार मंथन की हल्की सी लकीर उज्ज्वला के चेहरे पर थी. प्रणय के ऑफिस जाते ही उज्ज्वला के सोचने की प्रक्रिया और तेज़ हो गयी. सुषमा ड्राइंगरूम के केबल पर कोई फिल्म डेक रही थी.
'कॉफ़ी पियोगी. उज्ज्वला?' सुषमा ने पूछा.
'हाँ, पी लूंगी.'
कॉफ़ी के साथ ढेर सारी फुरसत लेकर उज्ज्वला सुषमा के पास आ बैठी.
'कौन सी फिल्म आ रही है?' उज्ज्वला ने कॉफ़ी का प्याला बढाते हुए पूछा.
'पता नहीं, बस ऐसे ही खोले बैठी हूँ. कितना अच्छा लग रहा है इस फुरसत को जीना वरना सुबह से देर रात तक जुटे रहो. कभी-कभी खाना तक खाने की फुरसत नहीं मिलती.'
'खाना खुद बनाती हो?'
'नहीं, एक आया रखी है. अच्छा खाना बनाती है.'
'थकती नहीं कभी?'
'थकती हूँ, लेकिन ऊबती नहीं हूँ. सच कहूँ जब काम नहीं होता तब थकने लगती हूँ.'
उज्ज्वला के भीतर लगातार कुछ करवटें ले रहा था. वह बड़े मन से सुषमा को सुन रही थी.
'मैं भी चाहती थी कुछ काम करूँ. पर...' आवाज में बुझे हुए सपने के चटखने का कंपन था.
'तू तो इतना जरूरी काम कर रही है/' सुषमा उज्ज्वला की मनोदशा को समझ रही थी और उसे संभालना चाह रही थी.
'यह काम जो इतने सालों से इतनी कुशलता से तू कर रही है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है.'
उज्ज्वला चुप रही. स्क्रीन पर चल रही फिल्म अब बैकग्राउंड में आ गयी थी.
'सुषमा,,,!' उज्ज्वला कुछ कहते-कहते रुक गयी.
'हाँ, बोलो क्या बात है?'
'कुछ नहीं, मैं सोच रही थी कि कोई काम खूब करने के बाद कई साल तक न करे तो क्या करना भूल जाते हैं.'
सुषमा ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'एक्टिंग दोबारा करना चाहती हो?'
'नहीं, एक्टिंग भला मैं...इस उम्र में, मैं तो ऐसे ही....' उज्ज्वला जैसे रंगे हाथों पकड़ी गयी हो.
'मैं तो खुद ही कहना चाहती थी तुझसे, लेकिन सोचा पता नहीं तू और प्रणय क्या सोचोगे. उज्ज्वला काम करने के लिए कभी देर नहीं होती. अगर तू करना चाहे तो मैं तेरी मदद कर सकती हूँ लेकिन पहले प्रणय से पूछ ले'
'उनसे क्या पूछना है? उज्ज्वला तपाक से बोली. और इसी के साथ जो अब तक खुद को छुपाने की कोशिश वो कर रही थी वह धराशाई हो गयी.

(जारी...)

Saturday, December 8, 2018

अभिनय-2

'मेरे मुश्किल वक़्त में जानती हो किसने मेरा साथ दिया?'
'किसने' उज्ज्वला ने पूछा।
'विकान्त दा ने.'
'वो कहाँ मिले?' उज्ज्वला आश्चर्य से रोमांचित हो उठी थी.
'कहीं मिले नहीं लेकिन उनसे जो सीखा। वही मेरा करियर बना. विकान्त दा की बातें याद करती थी तो बड़ी ऊर्जा मिलती थी. तुम यकीन नहीं मानोगी उज्ज, रोजमर्रा की बातचीत के दौरान कही गयी उनकी उन बातों से मैं हमेशा प्रेरित होती रही जिन पर हम उन दिनों बहुत ध्यान नहीं देते थे.'

उज्ज्वला बरसों पुराने वक़्त के उन टुकड़ों को फिर से जीने लगी थी. उसकी आँखों में वही पुरानी तस्वीरें उभरने लगी थी. उसकी आँखें में वही पुरानी तस्वीरें उभरने लगी थी. वही कालेज का जमाना, वही दोस्त, वही फटकार लगाते विक्रांत दा.
'विकांत दा हमेशा कहते थे न कि खुद को जिन्दा रखते हुए जीना ही असल जीना है. लेकिन उज्ज्वला तब हमने कभी सोचा था कि विकान्त दा कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं. जब जिंदगी से सामना हुआ तब लगा कि सचमुच बहुत मुश्किल है अपनी तमाम ऊर्जा और महत्वाकांक्षाओं को बरकरार रखते हुए, खुद को जिन्दा रखते हुए जीना. खासकर औरतों के लिए तो और भी मुश्किल है. सिर्फ कुछ समझौतों को साँसों के बल पर धकेलने जाने की नियति अगर स्वीकार नहीं तो राह में अड़चनें ही अड़चनें हैं.'

'लेकिन सुषमा, एक-दूसरे को समझना, एक दूसरे की पसंद-नापसंद का सम्मान करना अगर समझौता है तो मैं इसे गलत नहीं मानती. जीवन की मिठास बनाये रखने के लिए व्यक्तित्व की इतनी लचक तो लाज़िमी है.'

'तुम ठीक कह रही हो उज्ज्वला लेकिन हर बार समीकरण मनचाहे नहीं होते. अपने जीवन की मिठास निचोड़-निचोड़ कर जब तक भेंट करते रहो, तुम आदर्श स्त्री हो. लेकिन अगर एक बार अपने जीवन में भी थोड़ी सी मिठास, थोड़ी सी खुली हवा, मुठ्ठी भर आकाश की तमन्ना ने कहीं जन्म ले लिया तो?

'तो क्या? उज्ज्वला का सुषमा से असहमति का स्वर सुषमा भी महसूस कर रही थी,
'कुछ नहीं' सुषमा टालते हुए रसोई की ओर बढ़ी.
'देख सुषमा, बुरा मत मानना लेकिन पति को कोई दूसरा समझना तो ठीक नहीं है न. जब तक पति-पत्नी एक-दूसरे में खुद को नहीं देखते, वह रिश्ता तो कमजोर होगा ही.'

सुषमा हौले से मुस्कुरा दी. सुषमा को उज्ज्वला की बातों से कोई हैरानी नहीं हो रही थी. घर गृहस्थी में रमी अपने ही घर को 'दुनिया' मानने वाली ऐसी कितनी ही औरतों से मिल चुकी है सुषमा। 'समर्पण का सुख' जीते जीते 'सुख' का दायरा सिमट चुका होता इनका।

'तुम इतनी चुप क्यों हो गयी सुषमा। मेरी बात का बुरा तो नहीं माना। उज्ज्वला ने आटा गूंथना शुरू कर दिया था.
सुषमा मुस्कुराई। 'पगली है क्या, तेरी बात का क्या बुरा मानना?'
'फिर तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही? सुषमा की ख़ामोशी उज्ज्वला को बेचैन किये थी. 'देख सुषमा, तेरा अनुभव मेरे अनुभव से अलग है तो जाहिर है कुछ मतभेद तो होगा ही.

''अरे भई क्या आज खाना-वाना नहीं मिलेगा.'' प्रणय का स्वर ड्राइंगरूम से चलकर किचन तक आ पहुंचा था. उज्ज्वला के हाथों की गति बढ़ गयी. सुषमा उसकी मदद करने लगी.
बड़ी ख़ामोशी से खाना पेट तक पहुँचता रहा. कभी-कभी वक़्त चीज़ों को कैसे उलझा देता है. अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे तीन लोग. तीनों ही एक-दूसरे में प्रवेश करने की कोशिश में. लेकिन इस कोशिश में प्रणय सिरे से नाकामयाब रहा.
सुषमा के पास उज्ज्वला के सारे सवालों के जवाब हैं लेकिन सुषमा ने ख़ामोशी अख्तियार करना उचित समझा. तर्क, सवाल और उलझनों के भंवर में उज्ज्वला सुषमा के सवालों का सामना नहीं कर पायेगी. उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होगा कि अपने भीतर अभिनय की आंदोलित होती तरंगों को क्यों रोका उसने? रात दिन कुछ नया करने की फ़िराक में रहने वाली उज्ज्वला कहाँ खो गयी आखिर? और कैसे भूल गयी वो कॉलेज की बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड. उन दिनों उज्ज्वला का सिक्का चलता था कॉलेज में. जिसे देखो उज्ज्वला के पीछे भागता फिरता था. टीचर्स तक फैन थे उसके और अब यह सब गुजरे वक़्त का एक पन्ना, शोकेस में सजी एक शील्ड और एल्बम में लगी एक फोटो से अधिक कुछ नहीं. सुषमा निश्चय कर चुकी है कि वह उज्ज्वला से ऐसी कोई बात नहीं कहेगी. वह उज्ज्वल को किसी पसोपेश में नहीं डालना चाहती.

(जारी )

Friday, November 23, 2018

कहानी- अभिनय


'लो भई! तुम्हारी मिठाई और पेस्ट्रीज' पसीने में सने प्रणय ने थैला उज्ज्वला को थमा दिया. करीने से सजा कमरा बेहद सुकून दे रहा था प्रणय को. उज्ज्वला पूरे उत्साह से घर का कोना-कोना झाड़ने-पोछने में मशगूल थी. अठारह साल बाद अपनी प्यारी सहेली सुषमा का इंतजार करना उज्ज्वला को रुचिकर लग रहा था.

सुषमा आजकल बड़ी टीवी स्टार है. 'दमयंती' ने उसे रातो-रात स्टार बना दिया है लेकिन उज्ज्वला जिस सुषमा का इंतजार कर रही है, वह स्टार नहीं है. उसकी स्मृतियों में तो वही कॉलेज के ज़माने की सुषमा है. एक-दूसरे के बगैर एक दिन भी चैन से न रहने वाली सहेलियाँ आज अठारह साल बाद मिलेंगी यह ख्याल ही उज्ज्वला को रोमांचित किये जा रहा था.

'अरे भई, अगर तुम्हारी स्वागत की तैयारियां पूरी हो गयी हों तो हम लोग चलें स्टेशन से उसे रिसीव करने।' प्रणय का स्वर गूंजा तो उज्ज्वला की तन्द्रा भंग हुई.

'हाँ, हाँ, बस दो मिनट रुको, मैं जरा साड़ी बदल लूं. अच्छा बताओ प्रणय, सुषमा कैसी हो गयी होगी.?' दरवाजा भेड़ते हुए उज्ज्वला ने अतिरेक से पूछा।

'बिलकुल चुस्त-दुरुस्त और खूब मोटी।' गेट पर कोई स्त्री स्वर गूंजा।
'अरे सुषमा तू!' उज्ज्वला को जैसे अपनी आँखों पर यकीन ही नहीं आ रहा था.
'हाँ भई, शत-प्रतिशत मैं यानी सुषमा. हमेशा की तरह समय से थोड़ा पहले।' मारे भावुकता के उज्ज्वला की आँखें छलक पड़ीं. सफर की थकान को उज्जवला की बाहों में सौंपकर सुषमा भी उमड़ पड़ी थी. अब तक प्रणय रिक्शे से सामान उतार चुका था.
'सुषमा तू ऐसी कठोर निकलेगी, मैं न जानती थी. इतने सालों में कोई खबर नहीं।'
गुदगुदे सोफों में धंसते हुए यह उलाहना मीठा लगा सुषमा को.
'सब बताऊँगी, धीरज रख लेकिन अभी तो मुझे नहाना है, बहुत थक गयी हूँ.'
सुषमा नहाने गयी और उज्ज्वला ने चाय का पानी चढ़ा दिया। कितना कुछ कहना-सुनना है दोनों को. लम्बा अंतराल और हर पल का हिसाब।
'लो उज्जवला, मैं तो आ गई. नहा धोकर। चाय तैयार हो तो फटाफट पिलाओ।' उम्र खिंचकर पचास की ड्योढ़ी पर आ पहुंची है. अपने फिगर पर इतराने वाला जिस्म फूलकर बेडौल हो गया है. लेकिन आवाज में वही अल्हड़ रवानगी है.
'सुषमा, तू तो खूब मुटा गयी है.'
'हाँ यार, कुछ रोल की डिमांड और कुछ ज़माने से लड़ने की ताकत बटोरने के चक्कर में कुछ ज्यादा ही फूल गयी हूँ.' सुषमा ने बात कह तो दी लेकिन चाय की प्यालियों के बीच कहीं अवसाद का नन्हा टुकड़ा भी आ छुपा जिसे प्रणय की चुहल ने धीरे से किनारे किया.
प्रणय को डाक्टर के यहाँ जाना था. पिछले हफ्ते जिस दाढ़ की फिलिंग कराई थी वह फिर टीस मार रही थी. प्रणय के जाने के बाद खूब सारा एकांत समेट कर दोनों बैठी थीं मन में अथाह समन्दर समेटे। यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल था कि वक़्त की किस गिरह को पहले खोला जाय.
उज्ज्वला रात के खाने के लिए शिमला मिर्च और कटहल ले आयी थी काटने के लिए.
'तेज़ रफ्तार से जिन्दगी का पीछा करते-करते मैं अब थकने लगी हूँ उज्ज्वला। जीवन के लम्बे सफर की थकान तुझसे बांटने का जी चाहा इसलिए चली आई इतने सालों बाद, निसंकोच।'  सुषमा ने बातचीत का सिरा पकड़ा.
'लेकिन तुमने इतने सालों में एक बार भी मुझसे मिलने की कोशिश नहीं की क्या सचमुच तुम्हें मेरी याद ही नहीं आई.' उज्ज्वला के उलाहने में गहरा दुःख था.
'ऐसा नहीं है उज्ज्वला. दरअसल, इन सालों में मैं जिन-जिन रास्तों से गुजरी, उसकी गर्द भी तुम तक पहुंचने देना नहीं चाहती थी. मेरे सारे सगे-सम्बन्धी मुझसे दूर हो चुके थे. ऐसे में तेरे होने का एहसास ही मुझे सहारा देता था. मैं इसे टूटने नहीं देना चाहती थी. इसलिए खुद को दूर रखा तुझसे। लेकिन रख नहीं पायी कभी भी.' सुषमा का स्वर भीगने लगा था. 'और इसलिए अब आ गयी तुम्हारे पास कुछ दिन चैन से रहने। प्रणय को ऐतराज तो न होगा न ?' सुषमा ने उज्ज्वला की आँखों में झांकना चाहा, लेकिन वे तो दूर कहीं अतीत खंगाल रही थीं
'तुमने कुछ जवाब नहीं दिया उज्ज्वला?'
'अं SSS क्या?' उज्ज्वला वापस लौटी।
'अगर मैं कुछ दिन यहाँ रह जाऊं तो प्रणय को ऐतराज तो न होगा?'
'ऐतराज? प्रणय को? सवाल ही नहीं उठता। बल्कि उसे तो ख़ुशी होगी. सुषमा प्रणय मेरी भावनाओं को खूब समझता है' उज्ज्वला के इस वाक्य में काफी आत्मविश्वास था.
'उज्ज्वला, तू सचमुच किस्मतवाली है जो प्रणय तुम्हारी भावनाओं को समझता है. वरना आमतौर पर पति अपनी  असहमतियों को तर्कों की चाशनी में लपेटकर पत्नियों को कुछ यूँ चटाते हैं कि आमतौर पर वे कन्विंस हो ही जाती हैं और अगर नहीं होतीं छोटे-छोटे झगड़े एक बड़े तूफ़ान में बदलकर घर-परिवार, गृहस्थी सब तबाह कर देते हैं.' सुषमा की आँखें छलक पड़ी थीं.
'तू विपिन की बात कर रही है?' उज्जवला ने सुषमा की आँखों में झाँका।
'हाँ, विपिन से मेरे तलाक की वजह सिर्फ इतनी थी कि उसके तर्क मेरी असहमतियों का सामना नहीं कर पाते थे. उसका पति परमेश्वर होने का गुरूर मुझे मंजूर नहीं था. मैं उसकी आज्ञा मानने वाली हाँ, में हाँ और न में न करने वाली कठपुतली नुमा पत्नी न थी और यह उसे मंजूर नहीं था. भला हमारी गृहस्थी संघर्षों का इतना बोझ किस तरह सहती।'
'तो तू झगड़ा बढ़ाती ही क्यों थी?' उज्ज्वला ने उसे आदर्श पत्नी होने के नुस्खे बताने चाहे, लेकिन सुषमा आज पुराने जख्मों की पिटारी खोले बैठी थी.
'मैं झगड़ा नहीं बढ़ाती थी उज्ज्वला। मैंने बहुत समझौते किये. दो साल मैं विपिन की पत्नी रही, लेकिन एक पल के लिए उस व्यक्ति ने मेरी कद्र नहीं की. मैं चाहती थी परिवार बचा रहे लेकिन मैं खुद को भी बचाकर रखना चाहती थी. मैं थियेटर करना चाहती थी लेकिन विपिन को यह पसंद नहीं था. शहर में होने वाले प्ले देखने जाने की बजाय मुझे बिजनेस पार्टियों में जाना पड़ता था. मुझे लगने लगा था कि मैं एक उद्योगपति की शो-पीसनुमा पत्नी बनकर रह गयी हूँ. हमारा रिश्ता लगातार तनता जा रहा था. आखिर एक न एक दिन तो इसे टूटना ही था. इसके बाद समाज के अपमान और धिक्कार मिलने का दौर शुरू हुआ. इस सबके बीच खुद को संभालकर रखना सचमुच बहुत मुश्किल था.'
'तेरे घरवालों ने तेरा साथ नहीं दिया?' उज्ज्वला वक़्त  के गर्द खाये पुराने पन्नों को पढ़ते हुए काफी हैरान हो रही थी.
'घरवाले! उज्ज्वला ऐसे ही वक़्त में रिश्तों की सच्चाई सामने आती है. घरवालों की नज़र में भी तलाक  की दोषी मैं ही थी. मेरे तलाक से उनकी गर्दन शर्म से झुक रही थी. यू नो उज्ज्वला वी आर लिविंग इन डैमेज़्ड सिस्टम एंड सोसायटी. सदियों पुराने ढर्रों पर सोचते दिमाग हैं.'
सुषमा का अतीत कमरे में बिखरा पड़ा था. सब्जी काटते हुए वक़्त के जिस हिस्से को उज्ज्ज्वला जी रही थी वहां से वापस आना नहीं चाहती थी. सुषमा के चुप होते ही ख़ामोशी दोनों के दरम्यान मंडराने लगी.

जारी...

(सन 2000  में हंस के स्त्री विशेषांक में प्रकाशित कहानी )

लिखना नदी में पाँव डालकर बैठने जैसा हो


कब लिखना शुरू किया था याद नहीं लेकिन इतना याद है कि जब लिखना शुरू किया था तब लिखने के बारे में सोचा नहीं था. बस कोई हूक उठी थी जो सध नहीं रही थी. छोटी सी उम्र में दोस्त भी कम ही थे सो लिखने से ही दोस्ती भी गई. अब भी यह दोस्त ही है, इससे ज्यादा कुछ हो ऐसा कभी चाहा नहीं। वैसे दोस्त से बढ़कर क्या होता है भला. बस कि दोस्त हो और हर हाल में हो. जीवन के, मन के कैसे भी हों हालात दोस्त रहे साथ. लड़े, भिड़े, रूठ जाए फिर मना भी लाये। लिखना ऐसे ही रहा हमेशा. बिना किसी आकांक्षा के, लिखे से बिना किसी अलग तरह की कोई ख़्वाहिश जोड़े. बस नदी के किनारे पांव डालकर बैठने के सुख जैसा. जब कहानियां लिखीं तो पता नहीं था कि कहानी लिख रही हूँ, या जो लिख रही हूँ वो कहानी हो जाएगी। ऐसे ही कविताओं के साथ हुआ. पता नहीं चला कि कब क्या कैसे लिखा कब वो लिखा क्या बना और कब बनते- बनते रह गया. मेरे लिए उस वक़्त वैसा ही लिखा जाना जरूरी था जैसा वो लिखा गया. इसके इतर लिखने का प्रयास नहीं किया. चाहती हूँ यह लिखना ऐसे ही रहे जीवन में, सांस के जैसा। न इससे कम न इससे ज्यादा। न इससे ज्यादा की कोई अभिलाषा ही.

मुझे अपने लिखने में यह याराना बचाये रखना है. कि मुझे हर हाल में मेरा यह दोस्त मुझे संभाले रहे. बस इतना  ही.

Thursday, November 22, 2018

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में


- फहमीदा रियाज 

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में
वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में

मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में

वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है
न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में

सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़
कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में

मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी
तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में

नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त
मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में.

(स्मृति शेष)

Tuesday, November 20, 2018

मौसम


वो जो बो कर गए थे न तुम
उदासी के बीज
उनमें निकल आये थे कल्ले

ज्यादा सार संभाल नहीं मांगी उन्होंने
वो बढ़ते रहे धीरे-धीरे
चुपचाप
नवम्बर लगते ही उसमें खिला था पहला फूल
इन दिनों पूरा पेड़
गुलाबी फूलों से भरा है
ये मौसम गुलाबी यूँ ही नहीं हुआ जा रहा.

Monday, November 12, 2018

चलते जाने का सबब कोई नहीं


एक शोर से गुजरी हूँ, दूसरे शोर में दाखिल हुई हूँ. तीसरा शोर इंतज़ार में है. फिर शायद चौथा, पांचवां या सौवां शोर. चल रही हूँ चलने का सबब नहीं जानती शायद इतना ही जानती हूँ कि न चलना फितरत ही नहीं. चलना कई बार शोर से भागना भी होता है यह जानते हुए भी कि यह शोर अंतहीन है. भीतर जब शोर हो तो बाहर तो इसे होना ही हुआ. मुझे शोर से मुक्ति चाहिए, खूब बोलते हुए घनी चुप में छुप जाने का जी चाहता है. शांति चाहती हूँ लेकिन जैसे ही शांति के करीब पहुँचती हूँ घबरा जाती हूँ. क्या चाहती हूँ पता नहीं, बस चलना जानती हूँ सो चल रही हूँ. लगता है सदियों से चल रही हूँ. अब मेरी चाल थकने लगी है, मैं भी थकने लगी हूँ, सोना चाहती हूँ. बेफिक्र नींद.

मेरे कानों ने कभी यह नहीं सुना कि 'मैं हूँ न'. खुद को रोज हारते देख उदास हुआ करती थी. फिर हताश होने लगी. इस उदासी और हताशा में शायद जीने की इच्छा रही होगी. तो चल पड़ी एक रोज जीने की तलाश में. तबसे चलती जा रही हूँ. नहीं जानती  थी कि जीने की ख्वाहिश करना कितना मुश्किल होता है. हालाँकि बिना जिए जीते जाने से ज्यादा मुश्किल भी नहीं.

हर रोज नई जंग होती है. एक लम्हे में हजार गांठें लगी होती हैं सुलझाते-सुलझाते और उलझा लेती हूँ. कभी सुलझ जाए कोई लम्हा तो बच्चों सी चहक उठती हूँ उस पल भर की चहक में ही जीवन है. मैं उसे ही खोज रही थी शायद। खोज रही हूँ. हर रोज अपनी हाथों की लकीरों को देखती हूँ वो रोज बदली हुई नज़र आती हैं, कई रेखाएं तो घिस चुकी हैं एकदम. कुछ मुरझा चुकी हैं. मुझे कुछ नहीं चाहिए असल में. कुछ भी नहीं. मैं निराश नहीं हूँ, हताश भी नहीं हूँ बस थक गयी हूँ. बहुत थकन है पोर-पोर में. न कोई इच्छा शक्ति देती है न सपना ही कोई बस कि पैरों में बंधी चरखी पर नाचती फिरती हूँ. किसी भी लम्हे में इत्मिनान नहीं, सुख नहीं हालाँकि सुख जिसे कहती है दुनिया बिखरा है हर तरफ.

बचपन से अब तक जो बात याद आती है कि सबको मेरी जरूरत है, बहुत जरूरत, इतनी कि बचपन में बचपन की जगह ही नहीं बची. मुझे कभी नहीं बताया किसी ने कि कौन सी शरारत किया करती थी मैं, किस बात पर अड़ जाती थी जिद पर. बिना जिया हुआ उदास बचपन साथ रहता है. साथ वो सब रहता है जो था नहीं, जो साथ है वो साथ लगा नहीं कभी.

दोस्त कहती है, कुछ भी शाश्वत नहीं, हाँ, समझती हूँ. शाश्वत कुछ भी नहीं सिवाय इस उदासी के. इस उदासी की गोद में सर रखकर सो जाना ही उपाय है. 'मैं हूँ न' की यात्रा तय कर पाना आसान कहाँ होता है।

(नोट- कहीं भी साझा करने या प्रकाशित करने के लिए नहीं )

Sunday, October 28, 2018

'क' से कविता एक सुंदर मीठी सुबह से दिन का आगाज़


अक्टूबर में उतरता है मौसम हथेलियों पर, कन्धों पर, धरती पर. अक्टूबर में इंतजार शुरू होता है वादियों के शगुनों वाली बर्फ से भर जाने का, नाउम्मीदियों के उम्मीदों से बदल जाने का. अक्टूबर से शुरू होता है उत्सव का सिलसिला जो जोड़ता है मन के उत्सव से, जिन्दगी को सुंदर बनाने के ख्वाब को और मजबूती से थाम लेने से. ‘क’ से कविता की 30 वीं बैठक में भी देहरादून के कविता प्रेमियों ने उम्मीदों के ऐसे ही रंग चुने. इस बार ‘पोयट्री विद वॉक’ का विचार बना और इसके लिए सुबह का वक्त चुना गया. इस विचार का जिस तरह स्वागत हुआ उसने उत्साह बढ़ा दिया. सुबह की ताज़ा हवा में हरसिंगार के फूलों के बीच से गुजरते हुए, गिलहरियों की चुलबुली शरारतों को नजरों में भरते हुए कुछ देर को ही सही सभी कविता प्रेमियों ने खुद को तमाम तनाव से मुक्त और ऊर्जा से लबरेज महसूस किया. सबसे पहले ‘क’ से कविता के विचार को साझा किया गया कि किस तरह 23 अप्रैल 2016 को देहरादून में शुरू हुई पहली बैठकी का सिलसिला आज समूचे उत्तराखंड में फ़ैल चुका है. समूचे उत्तराखंड में 17 अलग अलग जगहों पर बैठकें होती हैं और हर शहर की अपनी स्वायत्ता है. सिर्फ दो ही मूल बातें हैं ‘क’ से कविता के कॉन्सेप्ट की पहली यहाँ अपनी कविता नहीं पढ़नी और दूसरी इसकी सादगी. मूल विचार इन बैठकों में शामिल होते हुए और इन्हें आयोजित करते हुए भी किसी भी तरह के तनाव से खुद को दूर कर पाना और जिन्दगी के थोड़ा और करीब जा बैठने की कोशिश होती है.


इसी कोशिश के चलते सबसे पहले सभी साथियों ने गांधी पार्क का पूरा चक्कर लगाया, पार्क में मौजूद फूलों, पेड़ों, पंछियों को महसूस किया. जिन्दगी में पहले से मौजूद कितनी ही कविताओं से हम रू-ब-रू होते होते रह जाते हैं उन्हीं लम्हों के करीब जाने की यह कोशिश थी. इसके बाद ‘क’ से कविता जो अब लगभग तीन वर्ष पूरे करने की यात्रा में है इसे किस तरह और बेहतर बनाया जाय इस बारे में सभी साथियों ने अपने विचार रखे. नन्ही तूलिका और तनिष्का ने बताया कि उन्हें ‘क’ से कविता की बैठकों का पूरे महीने इंतजार रहता है और उन्हें यहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता है.

कविता पाठ का सिलसिला शुरू हुआ संतोष अर्श की गजल से जो इब्ने इंशा, केदारनाथ अग्रवाल, जावेद अख्तर, विजय गौड़, अदनान कफील, ममता से होते हुए बहुत सारे अन्य कवियों तक पहुंचा. अनत में एक मोहक भजन और मोहन गोडबोले के बेहद सुरीले बांसुरी वादन के साथ बैठक का समापन हुआ.

सभी साथियों ने कहा ‘यह सुबह यादगार हुई.’

Thursday, October 25, 2018

कोई हमें सताये क्यों


दिल ही तो है न संग-ओ-ख़ीश्त दर्द से भर न आये क्यों 
रोयेंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों 

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं 
बैठे हैं रहगुज़र पे हम गैर हमें उठाये 

क्यों क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं 
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यों 

'ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बन्द हैं 
रोइये ज़ार-ज़ार क्या कीजिये हाय-हाय क्यों.

- ग़ालिब 

Wednesday, October 24, 2018

कहानी- पंख वाली खिड़कियाँ


दिनों को जैसे पंख लगे रहते हैं हरदम. इनसे कितनी भी होड़ करो ये पीछे छूटने को तैयार ही नहीं होते. दिनों से होड़ करना अब रीना का खेल हो चुका है. अपनी तनहाइयों से पीछा छुड़ाने के लिए उसने खुद ही अपने आसपास ढेर सारे काम का जंगल उगा लिया. न एक पल फुरसत का मयस्सर, न दिल दुखाने वाली कोई बात सोचने का वक्त. जो आये भी कोई अवसाद का झोंका, तो खुद को और झोंक दिया काम में रीना ने. काम की इसी आपाधापी में उसने कई रोज बाद इंटरनेट की दुनिया का दरवाजा खटखटाया. लॉग इन करते ही ढेर सारी हरी बत्तियां जलती न$जर आईं. उसे लगा वे सब जाने-पहचाने चेहरे हैं. वर्चुअल चेहरे. हरी बत्तियों के पीछे से झांकते...
हैप्पी बर्थ डे टू यू....हैप्पी बर्थ डे टू यू...
रीना ने जैसे ही रागिनी की मेल को क्लिक किया, एक छोटा सा क्यूट सा टेडी बियर गर्दन हिला हिलाकर गाने लगा.
अनायास ही रीना खिल गई. आज उसका जन्मदिन है, उसे तो याद ही नहीं था. लेकिन रागिनी को कैसे याद रहा...
अचानक रीना को लगा उसके ढेर सारे पंख उग आये हैं. वो खूब-खूब उडऩा चाहती है. असीमित उड़ान. अपने भीतर की खुशी को वो महसूस कर रही थी.
तो क्या प्रोग्राम है आज का?
विपिन का मैसेज चैट पर चमका.
रीना- कैसा प्रोग्राम? रीना ने अनजान बनते हुए पूछा.
विपिन- पार्टी का?
रीना- कैसी पार्टी
विपिन- तुम्हें नहीं पता?
रीना- नहीं, क्या हुआ?
विपिन- अरे, अयोध्या पर फैसला आ गया. कहीं कोई दंगा नहीं हुआ. इसकी पार्टी तो बनती है ना?
रीना- हूं....अयोध्या मंदिर तो मेरे पिताजी का है. रीना गुस्से में आ गई. हमारे भीतर का बच्चा कभी भी जाग उठता है. रीना को खुद के व्यवहार पर हैरत हुई.
विपिन- अरे यार, अपने देश के लिए इतनी उपेक्षा ठीक नहीं है. ऊपर से तुम हिंदू भी हो. खुश होना चाहिए तुम्हें. फैसला तुम्हारे हक में आया है.
रीना- सही कह रहे हो. ऊपर से मैं हिंदू भी हूं. तुम कम्युनिस्ट होने के नाम पर केवल हिंदुओं पर निशाना साधना बस. चलो जाओ, काम करने दो मुझे.
विपिन- अरे न सही अयोध्या फैसले की मिठाई, कम से कम जन्मदिन का एक लड्डू तो बनता है ना. ये कामरेड तो खाली लड्डू की फिराक में रहता है, बस.
रीना- ठीक कह रहे हो. इसीलिए जिधर का पलड़ा भारी न$जर आता है, उसी तरफ हो जाते हो. रीना ने खिंचाई की.
विपिन- यार एक लड्डू के लिए इतनी गालियां तो मत दो.
रीना- तो तुमने भी तो विश नहीं किया. अयोध्या फैसले पर मिठाई मांग रहे हो.
विपिन- मांगी तो जन्मदिन पर थी, तुम समझीं नहीं तो मैंने अयोध्या फैसले का हवाला ले लिया.
रीना- बातें मत बनाओ.
विपिन- तो
रीना- शाम को घर आओ.
विपिन- हवन करा रही हो क्या? तुम लोग तो हवन-शवन ही कराते हो जन्मदिन पर.
रीना- हां, करवा रही हूं हवन. उसमें अंतिम आहुति के तौर पर तुम्हें डालना है. जिंदगी खुद ही हवन हुई जा रही है. पता है, किसी को याद भी नहीं है घर में. रीना का स्वर उदास हो चला.
विपिन- कोई बात नहीं यार. इट्स ओके. अब हम बच्चे तो नहीं रहे.
रीना- हां, ठीक कह रहे हो. लेकिन क्या करें दिल तो बच्चा है जी...वैसे तुम घर आ आओ किसी दिन. सासूमां पूछ रही थीं तुम्हें?
विपिन- बाप रे? यार फिर वही शादी का रिकॉर्ड बजेगा. आजकल कहीं जाते घबराता हूं. मेरी शादी लगता है नेशनल इशू बन गई है.
रीना- तो कर क्यों नहीं लेते?
विपिन- डर लगता है. लगता है निभा नहीं पाऊंगा.
रीना- कोशिश करने वालों की हार नहीं होती....
विपिन- तुम कर तो रही हो कोशिश. और भी बहुत सारे लोग कर रहे हैं. हश्रे मामूल से वाकिफ न होते तो कर लेते हम भी खुदकुशी हंसते-हंसते...
रीना- वाह वाह...
विपिन- राघव कैसा है? उससे बहुत दिनों से बात नहीं हुई.
रीना- तुम्हें पता होना चाहिए. तुम्हारा दोस्त है.
विपिन- तुम्हारा भी तो पति है.
रीना- पति और दोस्त में अंतर होता है.
विपिन- लेकिन होना तो नहीं चाहिए.
रीना- होना तो बहुत कुछ नहीं चाहिए. तभी तो कह रही हूं शादी कर लो. तब देखती हूं कैसे देते हो लेक्चर...
विपिन- ना बाबा ना...चलो निकलता हूं मैं अब. कीप स्माइलिंग. जन्मदिन मुबारक एक बार फिर से?
रीना- थैंक्स.
विपिन- वैसे कितनी उम्र हुई?
रीना- मारूंगी.
विपिन- बाय
रीना-बाय.
विपिन से बात करते हुए ही रीना ने अपना चैट स्टेटस बदला. बिना ही बात मुस्कुराये रे मेरा मन...
जन्मदिन मुबारक हो मैम
अनुभूति का मैसेज कबसे पड़ा उसका इंत$जार कर रहा था.
रीना- थैंक्स. हाऊ डू यू नो?
अनु- फेसबुक मैम.
रीना- ओके. मुझे तो याद ही नहीं था.
रीना ने फटाफट फेसबुक खोला तो शुभकामनाओं की बाढ़ आई थी. वह मुस्कुरा दी. तभी मेल पर एक के बाद एक खिड़कियां खुलने लगीं.
सना- हैप्पी बर्थडे
विशू- कॉन्ग्रेट्स
निशा- व्हेयर इज द पार्टी टुनाइट
निखिल- आप जियें हजारों साल मैम
जोया- ढेर सारी बधाई
अनुभव- बधाई
अरुषि- बधाई बधाई बधाई
वैभव- मैनी हैप्पी रिटन्र्स ऑफ द डे मैम
रीना ने एक-एक करके सबका शुक्रिया अदा किया. उसे अच्छा लग रहा था. उसके चारों ओर शुभकामनाओं का इतना बड़ा संसार पहले कभी नहीं उगा था. इंटरनेट की दुनिया ने उसे कैसे-कैसे अनुभव दिए हैं. कितने सारे दोस्त. जिनमें से कुछ दोस्त तो अब लाइफलाइन बन चुके हैं. जैसे आभा दी, सना, रागिनी, प्रिया. रीना के पांव में सारा दिन तमन्नाओं की पायल बजती रही.
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ऑफिस में आज काम का ढेर लगा हुआ था. रीना बड़ी तन्मयता से किसी फाइल को पढऩे में डूबी थी, तभी प्रिया का मैसेज चमका.
हैलो....हैलो....हैलो...कोई है?
रीना- यस, आई एम देयर
प्रिया- थोड़ा सा समय ले सकती हूं?
रीना- हां बोलो. रीना बिजी थी फिर भी प्रिया को इग्नोर नहीं कर सकी.
प्रिया- रीना दी, पंकज अब पैचअप चाहता है.
बताओ कितनी मुश्किल से सब सैटेल हुआ है. ऐन वक्त पर ये नया नाटक...
रीना- पैचअप?
प्रिया- हां रीना दी. मुश्किल ये है कि उसके इस नये नाटक से मेरे पैरेंट्स
भी पिघल गये हैं. उन्हें भी लगता है कि मुझे पंकज को एक मौका और देना चाहिए.
रीना- क्या बात कर रही हो?
प्रिया- सच कह रही हूं रीना दी.
रीना- ये तो हद है.
प्रिया- वही तो. इमोशनल अत्याचार. कोई गोलू की दुहाई दे रहा है, कोई पंकज के आंसुओं की.
मैंने कहा कि मैं अपने बच्चे को अकेले पाल लूंगी तो पापा ने लेक्चर सुना दिया. आई एम फेडअप नॉव.
रीना- व्हाई पंकज हैज स्टार्टेड ऑल दिस ऑल ऑफ सडेन.
प्रिया- पता नहीं...प्रिया हताश हो रही थी.
रीना- देखो तुम अपने फैसले पर कोई इमोशनल प्रेशर मत आने देना.
प्रिया- वो तो नहीं आने दूंगी दी. लेकिन थक गई हूं अब लड़ते-लड़ते. सात साल शादी के फिर पांच साल का डिवोर्स केस. वहां भी बार-बार फैमिली काउंसिलिंग के बहाने मुझ पर ही दबाव बनाने की कोशिशें. सब कर कराकर जब फाइनल जजमेंट आने को था तो पंकज का नया नाटक. साले, तुम मेरी शक्ल देखना नहीं चाहते और रहना मेरे ही साथ चाहते हो. ये कैसा फ्रॉड है?
प्रिया का गुस्सा उसके मैसेजेस में झलक रहा था.
रीना- शांत हो जाओ. पंकज से ही बात करने पर बात बनेगी.
प्रिया- दीदी, यही तो वो चाहता है. गोलू से लिपटकर रोता है. मम्मी तो एकदम पसीज जाती हैं उसकी एक्टिंग देखकर. मेरे ही पैरेंट्स की न$जर में मुझे दोषी बना दिया उसने.
रीना- बात दोषी होने या बना देने की नहीं है प्रिया. दोषी कोई नहीं होता. बस कुछ समीकरण गलत हो जाते हैं.
प्रिया- दीदी, आप ऐसे कह रही हैं कि दोषी कोई नहीं होता. यहां सिर्फ समीकरण दोषी नहीं हैं. पंकज इज अ सिक मैन. आप जानती हैं उसने मेरे साथ क्या-क्या किया है. अगर तकदीर साथ न देती तो अभी तक या तो मैं पागलखाने में होती या मेरी तस्वीर पर हार लटका होता. मारने-पीटने, आधी रात को घर से निकाल देने से लेकर और क्या-क्या नहीं किया. मम्मी पापा सब जानते हैं फिर भी...
रीना- छोड़ो वो सब. आगे की सोचो.
प्रिया- नहीं, छोड़ूंगी नहीं. इंसान को अपना अतीत कभी नहीं भूलना चाहिए.
रीना- लेकिन अगर अतीत से लिपटी रहोगी तो भविष्य कैसे रचोगी?
प्रिया- अतीत से सबक लेकर.
रीना- ये भी ठीक है. एक नया सवेरा तुम्हारी राह तक रहा है, तभी अंधेरा लगातार गहरा रहा है.
प्रिया-काश ऐसा ही हो.
रीना- ऐसा ही होगा. ऑल द बेस्ट.
प्रिया- थैंक्स? आपसे बात करके हल्का महसूस हो रहा है.
रीना- हूं. टेक केयर. बाय.
प्रिया- बाय.
रीना अनजाने ही प्रिया की जिंदगी से अपनी जिंदगी के कुछ हिस्से मिलाने लगी. उसे लगा कि प्रिया के मुकाबले वो काफी कमजोर है. परिवार बचाने के लिए क्या कुछ नहीं सहना पड़ता है हम महिलाओं को. रीना की आंखों में उदासी के बादल का एक टुकड़ा तैरने लगा.
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चिडिय़ा उड़ी, उड़ के चली...अगले दिन की शुरुआत सना के इस स्टेटस मैसेज से हुई. उसे पढ़कर रीना मुस्कुराए बिना न रह सकी. ये लड़की भी ना जिंदगी से भरपूर है. इसके करीब से निकल भर जाओ, तो जिंदगी मुस्कुरा उठती है. जाने क्यों कोई इसकी जिंदादिली की कद्र नहीं कर पाता. रीना सोच रही थी.
स्वीट स्वीट गुडमॉर्निंग भेज रही हूं कैच करना. सना का मैसेज चैट विंडो से झांकने लगा. रीना को लगा उसके कमरे की खिड़की में सर डालकर सना खुद झांक रही है.
रीना- कैच कर लिया जी.
सना- गुड.
रीना- ये क्या है चिडिय़ा उड़ी...उड़ के चली...
सना- ये चिडिय़ा यानी मैं, अब चली.
रीना- कहां?
सना- मुम्बई नगरिया.
रीना- किसी फिल्म से ऑफर है क्या?
सना- फिल्म बनाने ही तो जा रही हूं.
रीना- ओके. चलो बढिय़ा है.
सना- आप नहीं चलोगी?
रीना- ले चलो.
सना- ठीक है फिर तैयार रहना. मैं भगा ले जाऊंगी.
रीना-पक्का?
सना- बड़ा मजा आयेगा.
रीना- मनोज से पूछ लिया?
सना- मनोज से क्या पूछना है? मेरी जिंदगी में इतनी इ$जाजत किसी को नहीं कि मेरे आड़े आये. मैं हूं बहती हवा...जो मेरे संग चले वो चले, वरना छूट जाये...
रीना- इतनी निर्मोही हो?
सना- हां, ऐसा ही समझ लो. मोह करने की बड़ी कीमतें अदा कर चुकी हूं.
रीना- अच्छा ठीक है. अब मैं निकलती हूं. आज काम भी ज्यादा है और घर भी जल्दी पहुंचना है. कुछ लोग डिनर पर आ रहे हैं.
सना- कभी हमें भी बुला लिया होता डिनर पर जानेमन.
रीना- क्यों तुम तो हवा हो. हवाएं क्या इनविटेशन कार्ड लेकर आती हैं. आ जाओ जब चाहो.
सना- ये बढिय़ा रहा. चलो जाओ, डिनर बनाओ. बाय.
रीना- बाय बाय.
चलो अपने सपनों का पीछा करने की ताकत तो है सना में. कबसे कह रही थी कि फिल्म बनाऊंगी...एकदम अलग. ऐसी फिल्म जो सपनों से, उम्मीदों से भरपूर हो. जिसमें औरतें ही औरतें हों. उसकी कुछ डाक्यूमेंट्रीज देखी हैं रीना ने. न$जर साफ है उसकी. अब मुम्बई जा रही है तो कुछ न कुछ तो करेगी $जरूर. रीना सना के बारे में सोचते हुए मुस्कुराने लगी. तभी उसे महसूस हुआ कि उसकी कोरें नम हैं. उसने अपने भीतर से सपनों के टूटने की आवाज महसूस की. न जाने कितने सपने...कितनी बार....सिर्फ सपने देखना काफी नहीं होता, उन्हें पूरा करने की ताकत भी हासिल करनी जरूरी होती है. सना के बारे में सोचकर रीना मुस्कुरा दी. बिना मां-बाप की इस लड़की ने कैसा कड़वा बचपन बिताया फिर भी अपनी हौसलों की उड़ान में कमी नहीं आने दी. काश तुम्हारे सारे सपने पूरे हों सना...रीना ने दिल से उसे दुआ दी.
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बिट्टू को स्कूल भेजने के साथ ही दिन की मुस्तैद शुरुआत के बाद रीना अखबार खोलकर बैठी तो चेहरा जर्द हो गया उसका. हैदराबाद में बम विस्फोट....तुरंत उसने टीवी ऑन किया. सारे चैनल्स खून से लथपथ न$जर आये. रीना को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था, बस दिखाई दे रहा था. सबसे पहला ख्याल उसे आभा दी का आया.
उसने तुरंत फोन उठाया. लेकिन नंबर तो उनका है ही नहीं मेरे पास. एक बार मांगा भी था लेकिन बात मजाक-मजाक में ही टल गई. इतने दिनों से एक-दूसरे को जानते हैं और बात एक बार भी नहीं हुई. नंबर कहां से होगा. पियूष से पूछती हूं. उनकी भी फ्रेंडलिस्ट में हैं आभा दी. वो तो मिला भी है उनसे. उसने पियूष को फोन मिलाया.
पियूष ने बताया कि आभा दी सकुशल हैं, तो रीना की जान में जान आई. उसने तुरंत फेसबुक ऑन किया तो आभा दी की वॉल पर हाल-चाल लेने वालों की भीड़ थी.
ऑफिस पहुंची तो मन अजीब-अजीब सा हो रहा था. काम करने का तो बिल्कुल मन नहीं हुआ. उसने चाय लाने किशोर को भेजा और सिस्टम ऑन किया. ढेर सारी हरी बत्तियां जल रही थीं. उसे लगा अदृश्य रहने में ही भलाई है, वरना इन हरी बत्तियों को खिड़की बनते देर नहीं लगेगी. रीना का मन नहीं था किसी से बात करने का. सुबह की खबरों से मन उदास था उसका.
आर यू देयर?
पियूष का मैसेज था.
रीना- हां, पियूष बोलो.
पियूष- रीना, आभा इज फाइन बट...डॉ. राजेश...
पियूष ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया.
रीना- क्या हुआ उन्हें?
पियूष- यू नो अबाउट हिम? पियूष ने हिचकते हुए पूछा?
रीना- यस आई नो. बताओ क्या हुआ उन्हें? इज ही ओके?
पियूष- ही इ$ज इंजर्ड. सीरियस हैं...
रीना- हाऊ डू यू नो? तुम्हें कैसे पता? तुम्हारे पास नंबर है उनका? मुझे दो. मैं अभी बात करती हूं...
रीना हड़बड़ा गई.
पियूष- नंबर दे दूंगा. लेकिन अभी बात करने का कोई फायदा नहीं. मेरी आभा से बात हुई है. मैं शाम की ट्रेन से निकल रहा हूं. उसे हमारी जरूरत है रीना...
चैट के उस मैसेज में ही पियूष की आंखों में छलके आंसू रीना से छुप न सके. रीना को तेज रुलाई आई. खुद को समेटकर उसने बाथरूम की दीवारों में कैद किया.
मुंह धोकर बाहर निकली, तो उसका जी चाहा कि उड़कर पहुंच जाए आभा दी के पास. उनका सारा दु:ख सोख ले अपने भीतर. मेरी अच्छी आभा दी. पियूष जा रहा है रात को. क्यों न मैं भी चली जाऊं. पियूष का वो वाक्य उसे हमारी जरूरत है...उसके जेहन में तैर रहा था. घर पर क्या बोलूंगी. वर्चुअल वर्ड की ये दोस्ती घर-परिवार वालों को कितनी समझ में आयेगी. राघव से तो कोई उम्मीद है नहीं, आजकल सासू मां भी आई हुई हैं. बिट्टू के एग्जाम्स होने वाले हैं, ऐसे में उसे छोड़कर अकेले अचानक कहां जा रही हूं. किसके लिए? कैसे समझा पायेगी वो कि जिसका फोन नंबर तक उसके पास नहीं है, जिससे कभी नहीं मिली, वो उसके लिए कितनी अहमियत रखती हैं.
उसे लगा इस मुश्किल का हल भी आभा दी के पास ही है. पिछले एक साल में आभा दी की ऐसी आदत पड़ गयी है उसे कि हर छोटे बड़े फैसले में वो शामिल रहती हैं किसी न किसी रूप में. और अब जब वे खुद मुश्किल में हैं तो....
इसी उलझन में पूरा दिन बीता. फेसबुक पर लगी उनकी छोटी सी तस्वीर उसके जेहन में लगातार घूम रही थी. हमेशा वो करो जो दिल चाहे...तो दिल पर कोई बोझ नहीं रहता...किसी मौके पर उन्होंने कहा था.
रीना ने पियूष को फोन मिलाया, तुम्हारी ट्रेन झांसी से होकर जायेगी क्या?
पियूष- हां क्यों.
मैं भी चलूंगी.
अरे, मैं जा रहा हूं ना? इतनी जल्दी रिजर्वेशन वगैरह भी नहीं मिलेगा. तुम परेशान मत हो. मैं वहां जाकर फोन करूंगा तुम्हें. पियूष ने समझाना चाहा.
पियूष मैं चलूंगी. बस. आज भी अगर मैंने अपना मन मार लिया, तो कभी चैन से सो नहीं पाऊंगी.
पियूष चुप रहा.
घर आकर वो चुपचाप एक बैग में सामान ठूंसती रही. उसके आसपास सवालों का एक जंगल उगता रहा...

(2016 में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित)

साढ़े चार मिनट


कमरे में तीन ही लोग थे। वो मैं और एक हमारी दोस्त...।
तीनों ही मौन थे।
मैं वहां सबसे ज्यादा थी या शायद सबसे कम।
वो वहां सबसे कम था या शायद सबसे ज्यादा।
दोस्त पूरी तरह से वहीं थी।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी।

सब खामोश थे। यह खामोशी इतनी सहज थी कि किसी राग सी लग रही थी। मैं खिड़की के बाहर लगे अनार के पेड़ों पर खिलते फूलों को देख रही थी। जिस डाल पर मेरी नजर अटकी थी वो स्थिर थी हालांकि उस पर अटकी पत्तियां बहुत धीरे से हिल रही थीं।

उन पत्तियों का इस तरह हिलना मुझे मेरे भीतर का कंपन लग रहा था। मुझे लगा मैं वो पत्ती हूं और वो...वो स्थिर डाल है। डाल स्थाई है। पत्तियों को झरना है। फिर उगना है। फिर झरना है...फिर उगना है।

'मुझे मां से बात करनी है...' वो बोला।

उसके ये शब्द खामोशी को सलीके से तोड़ने वाले थे।
मैं मुड़ी नही। वहीं अनार की डाल पर अटकी रही।
दोस्त ने कहा, 'अच्छा, कर लीजिए।'
'क्या वो यहीं हैं...?' उसने पूछा।
'हां, वो अंदर ही हैं।' बुलाती हूं।

कुछ देर बाद कमरे में चार लोग थे। मां मैं वो और दोस्त।
मैं अब भी खिड़की के बाहर देख रही थी।
'आप अंकल से बात कर लीजिए...' उसने मां से कहा।
मां चुप रहीं।

'लेकिन...' दोस्त कुछ कहते-कहते रुक गई।
'किसी लेकिन की चिंता आप लोग न करें...मैं सब संभाल लूंगा। सब।'
उसने मां की हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया।
दोस्त ने कहा, 'फिर भी।'
'परेशान मत हो। यकीन करो। ' उसने बेहद शांत स्वर में कहा।

कमरे में मौजूद लोगों की तरफ अब तक मेरी आधी पीठ थी। अब मैंने उनकी तरफ पूरी पीठ कर ली ताकि सिर्फ अनार के फूल मेरे बहते हुए आंसू देख सकें।

मां कमरे से चलीं गईं...दोस्त भी।

वो मेरे पीछे आकर खड़ा हुआ। अब वो भी कमरे के बाहर देख रहा था। शायद अनार के फूल...या हिलती हुई पत्तियां। कमरे में कुछ बच्चे खेलते हुए चले आए। उसने बच्चों के सर पर हाथ फिराया...बच्चे कमरे का गोल-गोल चक्कर लगाकर ज्यूंयूयूँ से चले गए।

अब कमरे में वो था और मैं...बाहर वो अनार की डाल...
उसकी तरफ मेरी पीठ थी....उसने कहा, 'तुमने पूरे साढ़े चार मिनट से मेरी तरफ नहीं देखा है...'

गहरी सर्द सिसकी भीतर रोकने की कोशिश अब रुकी नहीं।
अनार की डाल मुस्कुरा उठी।
'सिर्फ साढ़े चार मिनट नहीं, साढ़े चौदह साल...' मैंने कहा...

उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया।
हम दोनों अनार की डाल को देखने लगे...
बच्चे फिर से खेलते हुए कमरे में आ गए थे...उसने फिर से उनकी पीठ पर धौल जमाई...

वो आखिरी बार था जब मां की जिंदा हथेलियों को इस तरह किसी ने अपनी हथेलियों में रखा था।
उसी रात मां मर गई।
रोज की तरह चांद गली के मोड़ वाले पकरिया के पेड़ में उलझा रहा।
मां रात को सारे काम निपटाकर सोईं और फिर जगी नहीं।
बरसों से वो उचटी नींदों से परेशान थीं। सुबह उनके चेहरे पर सुकून था। वो सुकून जो उनके जिंदा चेहरे पर कभी नहीं दिखा।

वो आता, थोड़ी देर खामोशी से बैठता, चाय पीता चला जाता।
न वो मेरी खामोशी को तोड़ता न मैं उसकी।
हमारे दरम्यिान अब सवाल नहीं रहे थे। उम्मीद भी नहीं।
लाल कलगी वाली चिडि़या जरूर कुछ उदास दिखती थी।
मां ने पक्षियों को दाना देकर घर का सदस्य बना लिया था। वो घर जो उन्हें अपना नहीं सका, उस घर को उन्होंने कितनों का अपना बना दिया।

'तो तुमने क्या सोचा?' एक रोज उसने खामोशी को थोड़ा परे सरकाकर पूछा।
मैं चुप रही।
वो चला गया।
मैं भी उसके साथ चली गई थी हालांकि कमरे में मैं बची हुई थी।

दोस्त मेरी हथेलियों को थामती। मुझसे कहीं बाहर जाने को कहती, बात करने को कहती। उसे लग रहा था कि मैं मां के मर जाने से उदास हूं।
असल में मां की इतनी सुंदर मौत से मैं खुश थी। इसके लिए मैं उसकी अहसानमंद थी।
जीवन भर मां को कोई सुख न दे सकी कम से कम सुकून की मौत ही सही।

अनार की डाल पर इस बरस खूब अनार लटके। इतने कि डालें चटखने लगीं।
लाल कलगी वाली चिडि़या फिर से गुनगुनाने लगी।
मां की तस्वीर पर माला मैंने चढ़ने नहीं दिया।

उस रोज भी कमरे में चार लोग थे।
वो, मैं दोस्त और मां तस्वीर में.
वो जो सबसे कम था लेकिन था
मैं जो थी लेकिन नहीं थी
दोस्त पिछली बार की तरह वहीं थी न कम न ज्यादा
मां कमरे में सबसे ज्यादा थीं, तस्वीर में।

'साथ चलोगी?' उसने पूछा.
'साथ ही चल रही हूं साढे़ चौदह सालों से,' मैंने कहना चाहा लेकिन चुप रही।
'कहां?' दोस्त ने पूछा।
'अमेरिका....' उसने कहा
'लेकिन...' दोस्त ने कुछ कहना चाहा पर रुक गई।
'यहां सबको इस तरह छोड़कर...कैसे...' दोस्त ने अटकते हुए कहा।
शायद उसे उम्मीद थी कि वो पिछली बार की तरह उसे रोक देगा यह कहकर कि, 'लेकिन की चिंता मत करो, मैं संभाल लूंगा। सब। बस यकीन करो।'

उसने कुछ नहीं कहा। मैं मां की तस्वीर को देख रही थी।
'हां, मैं भी वही सोच रहा था।' उसने आखिरी कश के बाद बुझी हुई सिगरेट की सी बुझी आवाज में कहा।
'आपका जाना जरूरी है?' दोस्त राख कुरेद रही थी।

वो खामोश रहा।
चांदनी अनार के पेड़ पर झर रही थी।
'हां,' उसने कहा। दोस्त उठकर कमरे से चली गई। शायद गुस्से में। या उदासी में।
अब कमरे में तीन लोग थे मैं वो और मां।

'तुमने मेरी मां को सुख दिया,' कहते हुए मेरी आवाज भीगने को हो आई।
'तुम्हें भी देना चाहता था...' उसने कहा।
मेरे कानों ने सिर्फ 'था' सुना...

वो बिना ये कहे कमरे से चला गया कि 'तुमने पूरे साढ़े चार मिनट से मेरी तरफ नहीं देखा।'
न मैं यह कह पाई कि 'उम्र भर उसे न देख सकने का रियाज कर रही हूं...'



Friday, October 19, 2018

नदी, उदासी, इश्क



उस रोज जब
तुम्हारी निगाह में
बुझ रहा था प्रेम

आसमान में
बुझ रहा था चाँद

नदी बूझ रही थी
इस बुझ जाने की कहानी.

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नदी किनारे तुम्हारे संग होने का ख़वाब
कितना सुंदर था जब तक वो ख्वाब था

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नदी ने
आँखों के पानी को सहेज लिया

तुमने सहेज ली
दुनियादारी

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उस रोज जब तुम्हारी हथेलियों को
लेकर अपनी हथेलियों में
कहनी थी
किसी ख्वाब के पूरा होने की कहानी

तुम्हारी आँखों में दिखा
'द एंड' का बोर्ड

वहां कोई पानी क्यों नहीं था?

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नदियाँ जानती हैं
बहुत सी कडवाहट सहेजकर भी
देना नमी,
शीतलता

लेकिन ऐसा करते करते
वो बूढ़ी होने लगती हैं,
थकने लगती हैं एक रोज
और तब तुम शिकायत करते हो
जीवन में घिर आयी नमी की कमी की

नदियों को प्रदूषण से बचाना सीखो
धरती पर भी
अपने भीतर भी.

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रात गा रही थी मिलन का राग
नदी के किनारे
उगा था चौथ का चाँद

राग खंडित करने का हुनर
तुम्हें आता था.

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नदियों के पास नहीं इतना पानी
कि बेवफाई से जन्मे सूखे को
प्यार की नमी बख्श सकें

नदियाँ उदास प्रेमियों के आगे
सर झुकाए रहती हैं

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नदी प्रार्थना में थी
चाँद भी था सजदे में
हवाएं पढ़ रही थीं दुआएं
कि वक्त की शाख से
गिरा है जो प्रेम का लम्हा
वो लम्हा टूट न जाए कहीं

उस लम्हे को
तोड़ा तुम्हीं ने बेतरह

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इंतजार से मोहब्बत निखरती है
सुना था

लम्बे, बहुत लम्बे इंतजार के बाद भी
टूटी बिखरी ही मिली मोहब्बत

नदी बेबस सी देखती रही
मिलन की घड़ियों का
टूटन में बदलना

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नदियाँ सूख रही हैं
धरती की भी
इंसानों के भीतर की भी
नदियों को बचाया जाना
जरूरी है
मोहब्बत का बचाया जाना
ज़रूरी है

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जब जब तुमने अनसुना किया
नदियों के रुदन को

धरती पर सूखती गयी
प्रेम की फसल.


Thursday, October 18, 2018

प्यारी सी आशा

ये तस्वीरें मेरी नहीं हैं, आशा की हैं. आशा जिस तक लेकर गए साथी रोहित रूसिया. छिंदवाड़ा के रोहित जी ,से परिचय हुआ 'क' से कविता के जरिये और बाद में उनके हुनर एक-एक कर श्रृखंलाबध्ध ढंग से सामने आते गए, उनके कविता पोस्टर, कविता पाठ, नाटक और उनका कलात्मक काम. यकीनन और भी बहुत कुछ. 

उन्हीं के जरिये आरती रूसिया के काम को भी देखा और जाना. आरती आशा समूह का नेतृत्व करती हैं. आशा छिंदवाडा और उसके आस पास की आदिवासी स्त्रियों का समूह है जो करघे पर कपड़ा बुनने से लेकर हाथ की कारीगरी के जितने काम संभव हैं करता है. ये स्त्रियाँ आस पास के इलाकों में रहती हैं और आशा समूह में काम करती हैं. 

मैं आशा कॉटन फेब की वेबसाईट पर हैण्डमेड साड़ियों को देखती रहती थी, एक रोज रोहित जी से अपनी पसंद की साड़ी की फरमाइश कर दी. रंग एकदम वैसा जैसा मुझे चाहिए,  कपड़ा एकदम वैसा ही, उसमें डिजायन भी एकदम वैसी ही...इस तरह कभी कोई साड़ी या कोई भी चीज़ ली नहीं थी. मैं फरमाइश कर रही थी, मेरे सामने मेरी फरमाइश का बेस्ट ऑप्शन आ जाता. और इस तरह मेरी फरमाइशों को रोहित जी आरती जी और आशा समूह की साथियों के साथ मिलकर जो साड़ी बनवाकर मुझे भेजी वो है ये.

शुद्ध कॉटन, जिसका सूत हथकरघे पर बना है मिल में नहीं, वर्ली आर्ट जिसे आशा के साथियों ने अपने हाथों से साड़ी पर सजाया है ठीक उसी तरह जिस तरह मैं देहरादून में बैठकर सोच रही थी. साड़ी बनी, छिंदवाड़ा से चली और देहरादून में पैकेट खोलते ही लगा अरे, इतनी सुंदर...इतनी तो मैंने सोची नहीं थी. यह साड़ी दिखने में जितनी सुंदर है, इसका फैब्रिक महसूस करने में उतना ही नरम और आरामदायक.

रोहित जी, आरती जी और आशा के सभी साथियों को मेरा शुक्रिया कहियेगा. यह मेरी सबसे प्रिय साड़ियों में शामिल है... ASHA (Aid & Survival of Handicraft Artisan)

फेसबुक पेज - https://www.facebook.com/profile.php?id=100011211616605

Sunday, October 7, 2018

इसी मौसम में


हरसिंगार खिलने के महीने को अक्टूबर क्यों कहा गया होगा लड़की को पता नहीं लेकिन उसने हथेलियों में हरसिंगार सहेजते हुए हमेशा कुछ ताकीदें याद कीं जो इस मौसम में उसे दी गयी थीं. इसी मौसम में उसने आखिरी बार थामा था एक अजनबी हाथ, इसी मौसम में उसने निगाह भर देखा था उसे. शहर की सड़कों पर उन दोनों ने इसी मौसम में एक साथ कुछ ख़्वाब देखे थे. उन ख्वाबों में ही तय किया था एक वादा कि कोई वादा नहीं करेंगे एक दूसरे से. इसी मौसम में उँगलियों ने उँगलियों से दोस्ती की थी. निगाहों ने टकराकर दिशाएं बदलना सीखा था. यही तो था मौसम जब चाय पीने की शदीद इच्छा में खोजते फिरे थे चाय की कोई गुमटी और मिल जाने पर चाय इस कदर खोये रहे थे एक दूसरे में कि चाय ठंडी हो गयी थी रखे-रखे ही. इसी मौसम में उम्मीदों की ठेली लगाने की सोची थी दोनों ने और दरिया के पानी से वादा किया था कि पानी बचाए रखेंगे दरिया में भी और आँखों में भी.

इसी मौसम लड़की ने शरमाना सीखा था, शरमाना छोड़ा भी. इसी मौसम में लड़के ने उससे कहा था, अगर मुझे पाना है तो खुद को संभालना सीखो, उठना सीखो, अकेले चलना सीखो, मुश्किलों से लड़ना सीखो, धूप को सहना सीखो, काँटों से उलझना और खुद निकलना सीखो. उसने कहा अगर मुझे पाना है तो प्यार करो खुद को, संगीत के सुरों में धूनी जमाओ, रास्तों में भटकना सीखो. उसने कहा, अगर पाना है मुझे तो प्यास संभालना सीखो, बिन मौसम की बरसातों में भीगना सीखो, बिना धूप के सूखना सीखो. उसने कहा कि अगर जीना है प्यार में तो हर पल मरना सीखो, याद की तावीज़ गले में टांगकर मेरे बगैर ही मेरे होने को महसूस करना सीखो...

जब वो सब सीख गयी तो उसने पाया कि वो किसी और के संग जीना सीख चुका था...हरसिंगार झरे पड़े थे धरती पर...इसी मौसम में...

Friday, October 5, 2018

बचा रहे बनारस...


दाल में बचा रहे रत्ती भर नमक
इश्क़ में बची रहें शिकायतें
आँखों में बची रहे नमी
बचपन में बची रहें शरारतें
धरती पर बची रहें फसलें
नदियों में बचा रहे पानी
सुबहों में बची रहे कोयल की कूक
शामों में बची रहे सुकून की चाय
दुनिया में बची रहे मोहब्बत
और बचा रहे बनारस...

फेवरेट सिनेमा- फिलहाल


ये लम्हा फ़िलहाल जी लेने दो...

'फिलहाल' फिल्म मुझे कई कारणों से प्रिय है. बहुत सारे कारण. यह फिल्म दोस्ती पर बनी है. दोस्ती के आकाश को खिलते, निखरते देखने का सुख है इस फिल्म को देखना. यह फिल्म बनी है मातृत्व की तीव्र इच्छा और उसके तमाम एहसासों को सलीके से उभारती है, और जिस वक़्त यह फिल्म देखी थी मैं भी माँ बनने की तीव्र इच्छा में थी. यह मेघना गुलज़ार की पहली फिल्म थी. गुलज़ार साहब की बेटी के काम को देखने का रोमांच तो था ही.  इस फिल्म में मेरी प्रिय अभिनेत्रियाँ सुष्मिता सेन और तब्बू थीं. फिल्म के गीत बेहद खूबसूरत थे जो आज भी फेवरेट लिस्ट में शामिल रहते हैं.

इस फिल्म को मेघना ने बहुत ही प्यार से बनाया, हर फ्रेम, हर शॉट एकदम तसल्ली से. स्क्रिप्ट एकदम बंधी हुई. न कोई जल्दबाजी न कोई ठहराव. सरोगेसी पर पहले भी फ़िल्में बन चुकी हैं लेकिन इस विषय को डील करते समय जिस तरह की इंटेसिटी जिस तरह की भावनात्मक जर्नी की जरूरत थी वो फिल्म में दिखती है. मातृत्व का एहसास दुनिया का सबसे खूबसूरत एहसास, माँ बनने की इच्छा, इमोशनल उतार-चढ़ाव, मातृत्व की उस इच्छा को एक दोस्त के द्वारा समझा जाना और दुनिया के सबसे खूबसूरत एहसास को दोस्त को तोहफे में देना.

सुष्मिता भले ही कम फिल्मों में दिखी हों लेकिन मुझे उन्हें परदे पर देखना सुखद लगता है, तब्बू को भी. इन दोनों को दोबारा कभी किसी फिल्म में नहीं देखा. यह असल में सुष्मिता और तब्बू की फिल्म है जिसमें संजय सूरी और पलाश ने रंग भरे हैं. ये लम्हा फ़िलहाल जी लेने दो, ले चलें डोलियों में तुम्हें गर इरादा करो, सोलह सिंगार करके सहित तमाम गाने अच्छे लगते हैं. इस फिल्म का जिक्र भी हो तो मन को कुछ खुश खुश सा महसूस होता है...

Thursday, October 4, 2018

उम्मीद यहीं कहीं है



उस रोज मैं देहरादून के एक इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल के साथ कुछ बातचीत कर रही थी. दूरस्थ इलाके के इस इंटर कॉलेज में बच्चे कई कई किलोमीटर की पहाड़ियों से उतर कर आते हैं और प्रिंसिपल सर इस बात के मर्म को समझते हैं इसलिए भरपूर कोशिश करते हैं कि बच्चों की पढ़ने की इच्छा के चलते इतने दूर चलकर आने को ज्यादा से ज्यादा सम्मान कैसे दिया जाय, कैसे बच्चों के समय व पढ़ने की इच्छा को भरपूर खुराक दी जाय. इसी बाबत यहाँ शिक्षक साथियों के साथ हर महीने अकादमिक चर्चा की शुरुआत हुई है.

उस रोज भी हम उसी बाबत बात कर रहे थे जब किसी कोचिंग संस्थान के दो साथी वहां आये. प्रिंसिपल सर ने उनकी बात को ध्यान से सुना। उन कोचिंग वाले लोगों ने अपना प्रोजेक्ट बताया कि इंटर पास करने के बाद बच्चों का एक टेस्ट लेंगे और जो टॉपर्स होंगे उनके लिए फ्री कोचिंग की सुविधा होगी. प्रिंसिपल सर ने बहुत धैर्य के साथ उनकी बात सुनते हुए कहा कि क्या आप जानते हैं ये बच्चे कहाँ से आते हैं. कितनी दूरी तय करके, कितना पैदल चलकर, किन पहाड़ी ऊबड़ खाबड़ रास्तों से? इन बच्चों के लिए यहाँ कॉलेज आना ही इतना मुश्किल है ये आपकी कोचिंग कैसे पहुँचेंगे भला. लेकिन इससे इतर एक बात मेरे मन में चल रही थी कि जो बच्चे सिलेक्ट नहीं होंगे उनके लिए क्या? यही बात प्रिंसिपल सर ने कहकर मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया.

सारी दुनिया टॉपर्स सिलेक्ट कर रही है, सबके सिलेक्शन का क्राईटरिया नामी कॉलेज अच्छे मार्क्स ही हैं. तो फिर उनका क्या जिनके सामान्य नंबर आते हैं. जो सिलेक्ट होते होते रह जाते हैं, या जो इस रेस में बहुत पीछे छूट जाते हैं, कुछ तो डर के मारे इस रेस में दौड़ते भी नहीं. क्या कोई ऐसी कोचिंग या संस्था है जो पूछती हो कि जिन बच्चों को सीखने में दिक्क्त है उनके लिए हम हैं न? जो सिलेक्ट नहीं होते हम उनका ही हाथ थामेंगे कि सिलेक्टेड लोगों के साथ तो दुनिया है ही. क्या कोई ऐसी कंपनियां हैं या कभी होंगी जो चुनकर ले जाती हों हिम्मत हारे, मुरझाये लेकिन प्रतिभाशील लोगों को इस भरोसे कि वो उनके हुनर को निखार लेंगे।

सचमुच ये अच्छे नंबरों की दौड़ ने हमारा सबसे कीमती सामान हमारे भीतर का पानी छीन लिया है. उस रोज प्रिंसिपल सर की यह बात सुनकर कि उन बच्चों का क्या जो सिलेक्ट नहीं होंगे, हमारे लिए तो वो भी उतने ही अज़ीज़ हैं, बहुत अच्छा लगा. हम कितना ही प्राइवेटाइज़ेशन की ओर भाग लें लेकिन उम्मीद सरकारी स्कूलों की ओर से ही खुलती नज़र आती है जहाँ शिक्षक हर बच्चे के साथ निजी जुड़ाव के साथ काम कर रहे हैं और किन्ही कारणों से पीछे छूट गए बच्चों के पीछे खड़े होते हैं, उनके सर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं कि मैं हूँ न! उस एक लम्हे में बच्चों की आँखों में जो चमकता है न पानी वही उम्मीद है!

Tuesday, October 2, 2018

गाँधी जयंती और हरसिंगार



बच्चे गान्ही बाबा के जयकारे लगा रहे हैं
लाइन लगाकर घूमने आये हैं गाँधी पार्क
हालाँकि बच्चों की नजर गुब्बारे वाले पर है
और शिक्षिका की नजर बच्चों की संख्या पर
गांधी बाबा सिर्फ जयकारों में हैं

कुछ लोग छुट्टी मना रहे हैं गांधी बाबा के जन्मदिन पर
देर तक सोने और सिनेमा देखने जाने की योजना के साथ

कुछ ने धूल साफ़ की है चरखों की अरसे बाद
पहनी है गांधी टोपी
और कात रहे हैं सूत
ठीक गाँधी प्रतिमा के नीचे
फोटो के फ्रेम में एकदम ठीक से आ रहे हैं वो

तमाम राजनीतिक दल मना रहे हैं गांधी जयंती
पार्टी के झंडों और भाषणों के साथ
भाषण जिनकी भाषा में ही है हिंसा
हालांकि दोहरा रहे हैं वो बार-बार शब्द 'अहिंसा'
तैनात है तमाम पुलिस और पुलिस की गाड़ियाँ
गांधी जयंती के अवसर पर

मालाएं बार-बार चढ़ उतर रही हैं
गांधी प्रतिमा लग रही है निरीह सी
जो वो प्रतिमा न होती गांधी होते तो
तो शायद चले गये होते इस तमाशे से बहुत दूर
या खेल रहे होते बच्चों के संग

लेकिन वो प्रतिमा है और उसे सब सहना है
एक बच्ची पूछती है अपने पिता से
'पापा, गांधी जी तो कहते थे किसी को मारो नहीं
फिर इतनी पुलिस क्यों है?'
पिता के पास सिर्फ मौन है

बच्ची इस शोर से दूर पार्क में उछलती फिर रही है
हर सिंगार के पेड़ों ने फिजां को खुशबू से 
और रास्तों को फूलों से भर दिया है
मैं इन पेड़ों के नीचे धूनी जमाये हूँ

ये जो बरस रहे हैं न
नारंगी डंडी और सफ़ेद पंखुड़ियों वाले फूल
ये प्यार हैं,
इनकी खुशबू में तर रहना चाहती हूँ
टप टप टप गिरते फूलों के नीचे महसूस करती हूँ
कभी सर, कभी काँधे पर गिरना फूलों का
चुनने को फूल झुकती हूँ तो झरते हैं फूल मुझसे भी
कि कुछ ही पलों में मैं खुद हरसिंगार हो चुकी हूँ
दूर कहीं लग रहे हैं गांधी बाबा के जयकारे
जबकि मैं और वो बच्ची हम दोनों हरसिंगार चुन रहे हैं
हम दोनों की मुस्कुराहटों में दोस्ती हो गयी है.

(आज सुबह, गांधी जयंती )






Friday, September 28, 2018

फेवरेट सिनेमा- अनुरनन


ये शाम इतनी खूबसूरत है, क्या इसे मैं हमेशा के लिए अपने पास नहीं रख सकती? जब कभी मेरा मन उदास हो जाय तब इसी शाम को क्या मैं फिर से नहीं जी सकती?
क्यों नहीं? बस करना यह है कि ऐसे लम्हों को एक याद में बदल देना है,
'शब्द होते हैं पल भर के लिए निशब्द होता है अनंतकाल के लिए.'

( फिल्म अनुरनन से)

'अनुरनन' ( resonance ) यह मेरी प्रिय फिल्मों में शुमार है. इस पर मैं बहुत तसल्ली से लिखना चाह रही थी.हालंकि तसल्ली अब भी कहाँ मिली है. सिनेमा किस तरह अपना असर दिखाता है, किस तरह वो आपके करीब आकर बैठ जाता है. किरदार आपसे दोस्ती कर लेते हैं ऐसा कुछ महसूस हुआ इस फिल्म को देखते हुए. फिल्म के सभी किरदार राहुल बोस, रितुपर्णो सेनगुप्ता, राइमा सेन और रजत कपूर बेहद संतुलित ढंग से फिल्म में अपनी भूमिकाओं में पैबस्त हैं. मानो वो अभिनय न कर रहे हों, एक खूबसूरत धुन में गुम हों. फिल्म के कुछ दृश्य तो तमाम थकन को निचोड़कर फेंक देने में कामयाब हैं.

बेहद सुंदर भरोसे और प्यार भरे रिश्तों के बीच भी अचानक किस तरह समाज अपनी गलतफहमियों की टोकरी उठाये दाखिल होता है और फिर होता ही जाता है. जिस वक़्त आर्टिकल 497 को लेकर तरह तरह की विवेचनाएँ आ रही हों उस वक़्त ऐसे रिश्तों के ताने-बाने से गुंथी फिल्म को दोबारा देखा जाना चाहिए. समाज की गलतफहमियों वाली टोकरी उतारकर दूर रख आने से जिन्दगी कितनी खूबसूरत, कितनी आसान हो सकती थी लेकिन ऐसा होना कहाँ आसान है.

फिल्म कई परतों में खुलती भी है और हमारी तमाम परतों को खोलती भी है. सच कहूँ तो इस फिल्म ने बहुत सुकून बख्शा था एक वक़्त में. सिनेमोटोग्राफ़ी सुंदर है. फिल्म के तमाम दृश्य किसी तिलस्मी सौन्दर्य से भरपूर नजर आते हैं. बात करने को दिल नहीं चाहता, सिर्फ उन दृश्यों में गुम जाने को जी चाहता है अपनी साँसों की आवाज सुनते हुए.


Monday, September 17, 2018

फेवरेट सिनेमा- सिमरन



प्यारी सी है सिमरन...

अगर बात सिर्फ बंधनों को तोड़ने की है तो बात जरूरी है लेकिन बात जब बंधनों को पहचानने की हो तो और भी ज़रूरी हो जाती है. सही गलत सबका अपना होता है ठीक वैसे ही जीवन जीने का तरीका भी सबका अपना होता है. भूख प्यास भी सबकी अपनी होती है, अलग होती है. हमारा समाज अभी इस अलग सी भूख प्यास को पहचानने की ओर बढ़ा नहीं है. सिमरन उसी ओर बढती हुई फिल्म है.

जाहिर है हिंदी फिल्मों में भी एक लम्बे समय तक अमीरी गरीबी, जातीय वर्गीय भेद, सामंती पारिवारिक दुश्मनियों के बीच प्यार के लिए जगह बनाने की जद्दोजहद में लगा हिंदी सिनेमा अंत में मंगलसूत्रीय महिमा के आगे नतमस्त होता रहा. फिर समय आया कि अगर एक साथी बर्बर है, हिंसक है, बेवफा है तो कैसे सहा जाए और किस तरह उस साथी को वापस परिवार संस्था में लौटा लाया जाए, लेकिन इधर हिंदी सिनेमा ने नयी तरह की अंगड़ाई ली है.

शादी, प्यार, बेवफाई के अलावा भी है जिन्दगी यही सिमरन की कहानी है. कंगना पहले भी एक बार 'क्वीन' फिल्म में अपने सपने पूरे करने अकेले ही निकलती है. शादी टूटने को वो सपने टूटने की वजह बनने से बचाती है लेकिन सिमरन की जिंदगी ही एकदम अलग है. वो प्यार या शादी की तमाम बंदिशों से पार निकल चुकी है. शादी के बाद तलाक ले चुकने के बाद अपनी जिंदगी को अपनी तरह से जीना चाहती है. उसके किरदार को देखते हुए महसूस होता है कि किस तरह नस-नस में उसकी जिंदगी जीने की ख्वाहिश हिलोरे मारती है. जंगल के बीच अपनी फेवरेट जगह पर तितली की तरह उड़ती प्रफुल्ल यानि कंगना बेहद दिलकश लगती है. उसका प्रेमी उसे कहता है, 'कोई इतना सम्पूर्ण कैसे हो सकता है, तुम्हें सांस लेते देखना ही बहुत अच्छा लगता है'. सचमुच जिंदगी छलकती है सिमरन यानि प्रफुल्ल में.

वो अपने पिता से कहती है, 'हाँ मैं गलतियां करती हूँ, बहुत सी गलतियां करती हूँ लेकिन उन्हें मानती भी हूँ न'. वो जिंदगी का पीछा करते-करते कुछ गलत रास्तों पर निकल जाती है मुश्किलों में फंसती चली जाती है लेकिन हार नहीं मानती। उसकी संवेदनाएं उसका साथ नहीं छोड़ती। बैंक लूट के वक़्त जब एक सज्जन को दौरा पड़ता है तो उन्हें पानी पिलाती है.' बैंक लूट की घटना के बाद किस तरह ऐसे अपराधों के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार मान लिए जाने की आदत है लोगों में इस पर अच्छा व्यंग्य है साथ ही एक मध्यमवर्गीय भारतीय पिता की सारी चिंता किसी भी तरह बेटी की शादी पर ही टिकी होती हैं इसको भी अंडरलाइन करती है फिल्म।

सिमरन एक साफ़ दिल लड़की है. छोटे छोटे सपने देखती है, घर का सपना, जिंदगी जीने का सपना, शादी उसका सपना नहीं है, वो प्यार के नाम पर बिसूरती नहीं रहती लेकिन किसी के साथ कोई धोखा भी नहीं देती। गलतियों को जस्टिफाई नहीं करती, उनसे बाहर निकलने का प्रयास करती है. प्रफुल्ल के किरदार को कंगना ने बहुत प्यार और ईमानदारी से निभाया है. फिल्म शादी, ब्वॉयफ्रेंड, दिल टूटने या जुड़ने के किस्सों से अलग है. तर्क मत लगाइये, सही गलत के चक्कर में मत पड़िये बस कंगना से प्यार हो जाने दीजिये।

पिछले दिनों अपने बेबाक इंटरव्यू को लेकर कंगना काफी विवाद में रही है. विवाद जो उसकी साफगोई से उपजे। कौन सही कौन गलत से परे एक खुद मुख़्तार लड़की कंगना ने अपना मुकाम खुद बनाया है.... उसकी हंसी का हाथ थाम लेने को जी करता है, सब कुछ भूलकर जिन्दगी को जी लेने को दिल करता है.